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वैष्णों देवी यात्रा

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बच्चों के परीक्षा परिणाम आने के बाद एक सप्ताह की छुट्टी मिली तो मन में माँ वैष्णों देवी दर्शन की लालसा जाग उठी। भोपाल से दिल्ली और फिर वहाँ से देवर-देवरानी, जेठ-जेठानी के परिवार और बड़ी ननद के साथ हम 12 पारिवारिक सदस्य रात्रि को बस से सोते-जागते माँ के दर्शन के लिए निकल पड़े। दिल्ली से 10-11 घंटे के सफर के बाद हम सुबह 6 बजे जम्मू पहुँचे। यहाँ से पहाड़ी मार्ग से कटरा की यात्रा शुरु हुई तो मन खुशी से झूमने लगा। पहाड़ देखते ही मेरा मन उसमें डूब जाता है। आखिर यह परमात्मा की सबसे अनुपम रचना जो ठहरी! एक ओर घुमावदार ऊँची-नीची सड़क पर सरपट भागती बस की खिड़की से पहाडि़यों की तलहटी में बहती नदी और सुदूर हिमपूरित तराइयों में हिमावृत्त चोटियों पर सूर्य किरणों के पड़ने से बनते अद्भुत रंग के नीले, पीले, कुमकुम जैसी चित्ताकर्षक दृश्यों के इन्द्रधनुषी रंगों में डूबना बड़ा सुखकारी बन पड़ा। वहीं दूसरी ओर ऊँचे-ऊँचे अपार अनगिनत वृक्ष समूहों से आती शीतल मंद पवन के झोंखों से मन झूम उठा। प्रकृति के पल-पल परिवर्तित रूप बडे उल्लासमय और हृदयाकर्षक होते हैं। वह मुस्कराती रहती है; सर्वस्व लुटाकर भी हँसती है। सूर्याेदय हो या सूर्यास्त का समय प्राकृतिक छटा अनुपम और मनोमुग्धकारी होती है। ऐसी ही कश्मीर की प्राकृतिक छटा से मुग्ध होकर श्रीधर पाठक गा उठे-
प्रकृति यहाँ एकान्त बैठि, निज रूप संवारति,
पल-पल पलटति भेष, छनिक छवि छिनछिन धारति।
विहरित विविध विलासमयी, जीवन के मद सनी,
ललकती, किलकति पुलकति, निरखति थिरकति बनि ठनी।“  
जम्मू की पहाड़ी वादियों में डेढ़-दो घंटे डूबते-उतरते हुए हम कब कटरा पहुँच गए, इसका भान न हुआ। कटरा पहुँच कर वहाँ दो कमरे किराये पर लेने के बाद सभी नहा-धो और खाने-पीने के बाद शाम 5 बजे वैष्णों देवी दर्शन के लिए चल पड़े।
आते-जाते भक्तों के साथ हमने बड़े उत्साहपूर्वक ‘जय माता दी’के स्वर में स्वर मिलाया और बाण गंगा होते हुए धीरे-धीरे चरण पादुका और आदिकुमारी की चढ़ाई चढ़नी आरम्भ की। कभी घुमावदार तो कभी सीढ़ीनुमा रास्ते से हम धीरे-धीरे आगे बढ़ते चले। हम शहर में रच-बस चुके बड़े सदस्य तो थोड़ी चढ़ाई चढ़ते ही थककर बार-बार जहाँ-कहीं आराम करने बैठ जाते, लेकिन बच्चों का उत्साह देखकर मन को बड़ी राहत मिली। वे ‘जय माता दी’का उद्घोष करते हुए हरदम हमसे चार कदम आगे बढ़ते रहे। उनका जोश बरकरार रखने के लिए उनकी मनपंसद चीजें जैसे- चाकलेट, चिप्स, बिस्कुट आदि खिलाना-पिलाना थोड़ा महंगा जरूर लग रहा था लेकिन कुल जमा यह पिट्ठू, घोड़े-खच्चर, पालकी, हेलिकाॅप्टर के खर्च के आगे नगण्य रहा। हमारे शरीर में एक तरफ चाय-काॅफी पीने से फुर्ती आ रही थी तो दूसरी तरफ अपने परिवार के भरण-पोषण के वास्ते अपने कंधों पर पालकी उठाये बिना विश्राम किए तेजी से कदमताल करते हुए चुपचाप श्रद्धालुओं को उनके गंतव्य तक पहुंचाने वाले मजदूरों, घोड़े-खच्चरों में लदे लोगों को तेजी से हाँककर ले जाने वालों, तेल मालिश करने वालों और एक आध किलोमीटर की दूरी पर ढोल बजाने वालों को सोच-विचारने पर थके-हारे पैरों में जान आ रही थी।  
रात्रि लगभग 9 बजे आदिकुमारी पहुंचकर गुफा मंदिर दर्शन कर होटल में खाने-पीने और थोड़ा सुस्ताने के बाद हमने लगभग 11 बजे 'भवन'की यात्रा आरम्भ की। दुर्गम पहाड़ी रास्ते में अभूतपूर्व जन सुविधाओं जैसे- जगह-जगह यात्रियों की सुविधा के लिए शेड, पीने के लिए स्वच्छ पानी, टायलेट, बिजली की चौबीस घंटे निर्बाध आपूर्ति देखकर 12-13 वर्ष पहले और आज के समय में बहुत बड़ा सुनहरा परिवर्तन देखने को मिला तो यह मन खुशी से खिल उठा। चलते-चलते एक बारगी भी नहीं लगा कि हम जिस राह पर चल रहे हैं, वह कोई दुर्गम पहाड़ी है। हम धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए बीच-बीच में जितनी बार विश्राम करतेे, उतनी बार पहाड़ों के झुरमुट से तलहटी स्थित लाखों सितारों जैसे जगमगाते कटरा की खूबसूरती को देखना नहीं भूलते। यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक वह हमारी आँखों से ओझल न हुआ।
माँ के दरबार के करीब पहुंचते ही ‘जय माता दीकी सुमधुर गूंज कानों में पड़ी तो माँ के दर्शनों की तीव्र उत्कण्ठा के चलते हमारे कदम तेजी से उस ओर बढ़ चले। यहाँ यात्रियों का परस्पर प्रेम देखकर लगा जैसे यही स्वर्ग है। सुगमतापूर्वक माँ के दर्शन हुए तो मन को असीम शांति मिली।  धर्मशाला में 3-4 घंटे आराम करने के उपरांत हमने सुबह-सवेरे एक बार फिर भैरवनाथ के दर्शनों के लिए चढ़ाई चढ़कर उस पर फतह पायी। माँ के सुनहरे भवन और प्राकृतिक सौंदर्य में गोते लगाते हुए जब हमने भैरोनाथ के दर्शन किए तो यात्रा पूरी होने पर मन को बड़ा सुकून मिला। थोड़ी देर चहलकदमी करने के बाद हम आदिकुमारी होते हुए कटरा के लिए निकल पड़े। आदिकुमारी पहुंचकर थोड़ा खा-पीकर और सुस्ताने के बाद हमने कटरा की राह पकड़ी।
सीढि़याँ उतरते समय देवरानी-जेठानी और बड़ी ननद की आपस में घर पहुंचकर सबसे पहले कन्या भोज करवाने की बातें चल रही थी। लेकिन मुझे घर आकर कन्या भोज करवाने से अच्छा पेट की खातिर सीढि़यों पर माँ की चुनरी ओढ़े, दो पैसे की आस लगाई बैठी कन्याओं को दान-दक्षिणा देकर उनका आशीर्वाद लेना ज्यादा उचित और फलदायी लगा। मोबाइल बैटरी खत्म होने से मन में माँ के दरबार, भैरवनाथ और आस-पास की फोटो न उतार पाने का बड़ा मलाल था, लेकिन जब कटरा पहुंचकर सबने नहा-धोकर फोटो स्टूडियों में माता रानी के सजे दरबार में सामूहिक फोटो खिंचवा ली, तो मन का मलाल जाता रहा। रात्रि 8 बजे हमने दिल्ली के लिए बस पकड़ी और माँ वैष्णो देवी का स्मरण करते हुए हम सुबह लगभग 8 बजे वापस अपनी दुनिया में लौटकर उसमें खो गए।

'जय माता दी'

 ...कविता रावत


लोकतंत्र का महोत्सव

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जब से चुनाव आयोग ने लोकतंत्र का चुनावी बिगुल बजाया, तब से कविवर पदमाकर के वसंत ऋतु की तरह ‘कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में, क्यारिन में कलिन में कलीन किलकंत है, कहे पद्माकर परागन में पौनहू में, पानन में पीक में पलासन पगंत है, द्वार में दिसान में दुनी में देस.देसन में, देखो दीप.दीपन में दीपत दिगंत है, बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में, बनन में बागन में बगरयो बसंत है'की तर्ज पर इन दिनों गाँव की चौपाल, खेत-खलियान से लेकर शहर की गली-कूचों में, घर-परिवार में, हाट-बाजार में, पान-गुटके की गुमठियों में, चाय की दुकान-ठेलों में, होटल-रेस्टोरेन्ट में, स्कूल-कालेज में, बस में, हवाई जहाज में, ट्रेन में, पार्क में, पिकनिक में, शादी-ब्याह में, सरकारी-गैर सरकारी दफ्तरों में, रेडियो-टीवी में, समाचार पत्र-पत्रिकाओं में, टेलीफोन-मोबाइल में, इंटरनेट में, धार्मिक अनुष्ठानों में, पढ़े-लिखे हो या अनपढ़, गरीब हो या अमीर, व्यापारी हो या किसान, नौकरीपेशा हो या बेरोजगार, जवान हो या बुजुर्ग हर किसी पर लोकतंत्र के महोत्सव का रंग सिर चढ़कर बोल रहा है।
पाँच वर्ष में एक बार लगने वाले इस महोत्सव में लोकतंत्र के बड़े-बड़े जादूगर अपनी-अपनी जादुई छडि़यों से देश में व्याप्त बेरोजगारी, भुखमरी, महंगाई, भ्रष्टाचार को दूर भगाने के लिए ऐसे करतब दिखा रहे है, जिसे देखते ही अच्छे से अच्छा जादूगर भाग खड़ा हो जाय। जनता जनार्दन को राजनीति के अभिनय का ऐसा जौहर देखने को मिल रहा है, जिसे कोई बड़े से बड़ा अभिनेता भी नहीं निभा सकता है। नौटंकियों का सुन्दर अभूतपूर्व दुर्लभ समागम एक साथ देखने का आनन्द भी जनता को मिल रहा है।  इस महोत्सव में लोकतंत्र के महारथी जो सुनहरे सपने दिखा रहे हैं, उनमें जनता का मन खूब रमा हुआ है।
इधर महोत्सव में समुद्र मंथन जारी है, जिसके भाग्य में लक्ष्मी होगी उनके दिन सुदामा की तरह कुछ इस तरह फिरने में देर नहीं लगनी वाली-
“कै वह टूटी सी छानि हुती कहँ। कंचन के सब धाम सुहावत।
कै पग में पनही न हती कहँ। लै गजराजहु ठाडे महावत।।
भूमि कठोर पै रात कटै कहँ। कोमल सेज पै नींद न आवत।
कै जुरतो नहिं कोदों सवाँ, प्रभु के परताप ते दाख न भावत।।“
  उधर जिनके भाग्य में विषपान लिखा होगा, वे या तो“सदा न फूले तोरई, सदा न सावन होय। सदा न जीवन थिर रहे, सदा न जीवै कोय"की तर्ज पर 5 साल तक चुप रहेंगे या फिर कविवर बिहारी की ग्रीष्म ऋतु की कल्पना की तरह 'जब ग्रीष्म का प्रकोप प्राणियों को व्याकुल कर देता है तो वे सुध-बुध खोकर पारस्परिक राग-द्वेष भी भूल जाते हैं। परस्पर विरोधी स्वभाव वाले जीव एक दूसरे के समीप पड़े रहते हैं, किन्तु उन्हें कोई खबर नहीं रहती।’ इस तरह की तपोवन जैसी स्थिति में मिलेंगे-“कहलाने एकत बसत, अहि, मयूर, मृग बाघ, जगत तपोवन सो कियो, दीरघ दाघ निदाघ“।
लोकत्रंत के महारथी राजनेता "जो डूबे सो ऊबरे, गहरे पानी पैठ"की तरह लगे हुये हैं तो हम आम जनता की तरह अपने मतदान फर्ज निभाकर "मैं बपूरा बू़ड़न डरा, रहा किनारे बैठ"की तर्ज पर लोकतंत्र के इस महोत्सव में तमाशबीन बनकर एक तरफ मिथ्याओं पर धर्म का मुलम्मा चढ़ते तो दूसरी तरफ सच्चाई से ईमान को निचुड़ते देख अकबर इलाहाबादी को याद कर रहे हैं-
 "नयी तहजीब में दिक्कत, ज्यादा तो नहीं होती
मजहब रहते हैं, कायम, फकत ईमान जाता है।"

..... कविता रावत

हम भोपाली

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हम कहलाते हैं भोपाली
मिनीबस की है कुछ बात निराली
हम कुछ भी बकें इधर-उधर
हर बात हमारी है निराली
         हमसे बढ़ती शान
हम कहलाते हैं भोपाली।

हम ड्रायवर सबको ढ़ोते-फिरते
चाहे चपरासी हो या अफसर
पर जब आते टेंशन में भैया
तब दिखता न घर न दफ्तर
पान-गुटका-बीड़ी साथ हमारे
जुबां पर रहती हरदम गाली
         हमसे बढ़ती शान
हम कहलाते हैं भोपाली।

खाऊ किस्म के जीव नहीं हम
चाय कट पूरे गुटके से काम चलाते
रीढ़ की हड्डी हम सरकार की भैया
हम तो सबके प्यारे बाबू कहलाते
कुछ आये न आये हमको
पर आती है प्यार भरी गाली
        हमसे बढ़ती शान
हम कहलाते हैं भोपाली।

सरकार का बोझ उठाते हम
सरक-सरक कर चलते रहते
हम सरकारी अफसर कहलाते
अगर कोई काम बिगाड़ दे भैया
तो करते ठीक देकर दो-चार गाली
         हमसे बढ़ती शान
हम कहलाते हैं भोपाली।

..कविता रावत

विश्व तम्बाकू निषेध दिवस

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कभी बचपन में हम बच्चों को दुबले-पतले, खांसकर-खांसकर बीड़ी फूंकते हुए बुजुर्गो के मुंह से बीड़ी छुड़वाकर और फिर उन्हें यह कहकर चिढ़ाते हुए कि ‘बीडी पीकर ज्ञान घटे, खांसत-खांसत जी थके, खून सूखा अंदर का, मुंह देखो बन्दर का’ खूब मजा आता था। हमारी इन हरकतों के नाराज होकर जब कोई हमारे पीछे अपनी बीड़ी छुड़वाने के लिए हांफकर-हांफकर दौड़ लगा बैठते तो हम एक ही सांस में दूर तक भाग खड़े होते। तब हताश होकर वे बेचारे थोड़ी दूर भागने के बाद ही थक हारकर वहीं बैठ बंडल से दूसरी बीड़ी जलाकर धुंआ उगलने बैठ जाते। यह देख हम चोरी छुपे दबे पांव आकर उनके पीछे चुपचाप इस ताक में बैठ जाते कि कब हमें फिर से यह खेल खेलने का मौका मिले। इस दौरान जब कभी उनकी नजर हम पर पड़ती तो वे डांटने डपटने के बजाय मुस्कराते हुए उल्टी-सीधी बीड़ी मुंह में फंसाकर कभी नाक से तो कभी मुंह से हवा में धुंए की विभिन्न कलाकृतियाँ उकेरने लगते तो हम मंत्रमुग्ध होकर यह खेल देखते दंग रह जाते। तब उनका यह करतब हमारे लिए किसी जादूगर के जादू से कम न था।
बचपन के दिन बीते और बड़े हुए तो समझ में आया कि बचपन में हम तो मासूम थे ही लेकिन बीड़ी का धुंआ उड़ाने वाले हमारे बड़े बुजुर्ग भी कम मासूम न थे, जो खांसते-खांसते बेदम होकर भी हमें धुंए की जादूगरी दिखाना कभी न भूले पर कभी यह न जान सके कि यह धुंआ सबके लिए कितना घातक है। आज भी गांव से लेकर शहर तक जब किसी को बेफ्रिक होकर धुंआ उड़ाते, मुंह में गुटखा ठंूसे देखती हूँ तो यही लगता कि हम पहले से भी ज्यादा मासूम हो चुके हैं, जो लाख चेतावनी और जागरूकता के बावजूद भी तम्बाकू को हँसी-खुशी गले लगाकर खुश हुए जा रहे हैं।
              विश्व तम्बाकू निषेध दिवस पर यह बताते हुए बड़ा कष्ट हो रहा है कि इसे हम भारतीयों से ही शुरू होना माना जाता है। सर्वप्रथम धूम्रपान अमेरिका में लाल भारतीयों द्वारा किया गया। सन् 1600 के प्रारम्भ में यह यूरोप के देशों में फैला और वर्तमान में विश्व जनसंख्या का एक बड़ा भाग तम्बाकू का धूम्रपान करता है जबकि कुछ अन्य इसे चबाते हैं। माना जाता है कि आरम्भिक दिनों में तम्बाकू का उपयोग सामाजिक तौर से मान्य किया गया था जिसे हानिकारक नहीं समझा जाता था। लेकिन वैज्ञानिक शोध तम्बाकू के सेवन को हानिकारक बताते हैं। निकोटीन सिगरेट में प्रयोग होने वाली तम्बाकू का एक व्यापक उत्तेजनक घटक होता है। यह अधिक विषैला होता हैं। यह शरीर पर अनेक प्रभाव डालता है। यह तंत्रिका आवेग के मार्ग को उत्तेजित करता है। पेशियों की शिथिलता का कारण एवं एड्रीनेलीन के स्रावण का कारण होता है। रक्त दाब एवं हृदय स्पंदन दर दोनों को बढ़ाता है। धूम्रपान द्वारा बढ़ा हुआ रक्त दाब हृदय रोग की संभावनाओं को बढ़ा देता है। गर्भवती महिलाओं में निकोटिन से भू्रण की वृद्धि कम होती है। निकोटीन के अलावा तम्बाकू के धुंए में कार्बनमोनोआॅक्साइड बहुचक्रीय ऐरोमेटिक हाइड्रोकार्बन एवं टार पाये जाते हैं। 
धूम्रपान से होने वाले कुछ प्रमुख रोगों के बारे में एक नजर
1.कैंसर:  तम्बाकू के धुंए से उपस्थित बेंजपाएरीन कैंसर जनित होता है। लगभग 95 प्रतिशत फेफड़ों के कैंसर के मरीज धूम्रपान के कारण होते हैं। विपरीत धूम्रपान मुख कैंसन का कारण होता है। विपरीत धूम्रपान में सिगार का जलता हुआ सिरा मुख में रखा जाता है। विपरीत धूम्रपान आंध्रप्रदेश के गांवों में सामान्य होता है। बीड़ी के धूम्रपान के कारण जीभ, फैरिंग्स (गला), लैरिंग्स, टांन्सिल एवं ग्रासनली के कैंसर हो जाता है। होंठ कैंसर सिगार एवं पाइप के द्वारा होता है। तम्बाकू चबाने से मुख कैंसर होता हैं
2.टी.बी. (तपेदिक): धूम्रपान से हमारे भारत में सबसे ज्यादा टीबी या तपेदिक के रोगी मिलते हैं। तपेदिक के जीवाणु संक्रमति व्यक्ति से स्वस्थ व्यक्ति में फैल सकते हैं।
3.खांसी एवं ब्रोंकाइटिस : तम्बाकू के धूम्रपान से फैरिंग्स और ब्रोंकाई की म्यूकस झिल्ली उत्तेजित होने के कारण खांसी एवं ब्रोंकाइटिस हो जाता हैं
4.हृदय संवहनी रोग : तम्बाकू के धूम्रपान के कारण एड्रीनील का स्त्रावण बढ़ जाता है जिससे धमनियों के संकुचन द्वारा रक्त दाब, हृदय स्पंदन की दर में वृद्धि हो जाती है। उच्च रक्त दाब हृदय संबंधी रोगों की संभावनाओं को बढ़ाता है। निकोटीन हृदय के द्विपट कपाट को नष्ट करता हैं
5.एम्फाइसिमा- तम्बाकू का धुआं फेफड़ों की एल्वियोलाई की भित्ति तोड़ सकता है। गैसीय विनिमय के लिए सतही क्षेत्रफल को कम कर देता है, जिससे एम्फाइसिमा हो जाता है।
6.प्रतिरक्षा तंत्र पर प्रभाव :  यह प्रतिरक्षा तंत्र को कमजोर करता है।
7.आॅक्सीजन वहन क्षमता में कमी :  तम्बाकू के धुंए की कार्बनमोनोआॅक्साइड शीघ्रता से आरबीसी की होमोग्लोबिन को बांधती है एवं सह विषाक्तता का कारण होती है, जो हीमोग्लोबिन की आॅक्सीजन वहन क्षमता को कम करता है।
         तम्बाकू सेवन रोगों को खुला निमंत्रण तो देता ही है साथ ही यह धूम्रपान न करने वालों को चिढ़चिढ़ा बनाता है। ये धूम्रपान न करने वालों के लिए अधिक हानिकारक सिद्ध होते है। धूम्रपान करने वालों के होंठ रंगीन और दांत एवं अंगुलियां धब्बे युक्त हो जाती है एवं सांसों से बदबू आने लगती है, जिससे उनके व्यक्तित्व पर बुरा प्रभाव पड़ता है। उनके घर-परिवार की आर्थिक स्थिति बुरी तरह प्रभावित होती है।
            विश्व तम्बाकू निषेध दिवस पर आज ही इस बुरी लत को जड़मूल से नष्ट करने का संकल्प लेकर इसे अपने आस पड़ोस, घर-दफ्तर और गांव-शहर से दूर भगायें और ईश्वर ने हमें जो निःशुल्क उपहार दिए हैं- स्वस्थ शरीर, पौष्टिक भोजन, स्वच्छ हवा, निर्मल जल, उर्वरा शक्ति संपन्न भूमि व विविध वनस्पतियां, जीव-जन्तु व मानसिक बौद्धिक क्षमता जिनसे हमें  निरन्तर आगे बढ़ने को प्रेरणा मिलती हैं, उसे सुरक्षित, संरक्षित कर अपनायें।

....कविता रावत



पचमढ़ी की वादियों में

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जब सूरज की प्रचण्ड गर्मी से हवा गर्म होने लगी, तो वह आग में घी का काम कर लू का रूप धारण कर बहने लगी। सूरज के प्रचण्ड रूप को देखकर पशु पक्षी ही नहीं, वातावरण भी सांय-सांय कर अपनी व्याकुलता व्यक्त करनी लगी तो प्रसाद जी की पंक्तियां याद आयी- "किरण नहीं, ये पावक के कण, जगती-तल पर गिरते हैं।"लू की सन्नाटा मारती हुई झपटों से तन-मन आकुल-व्याकुल हुआ तो मन पहाड़ों की ओर भागने लगा। सौभाग्यवश पिछले सप्ताह आॅफिस की ओर से पचमढ़ी की वादियों में 3 दिवसीय कार्यालय प्रबन्धन प्रशिक्षण का सुअवसर मिला तो तपती गर्मी से झुलसाये तन-मन में पचमढ़ी हिल स्टेशन घूमने की तीव्र उत्कण्ठा जाग उठी।
गर्मी के प्रकोप से बचने के लिए सुबह 19 सहकर्मियों के साथ हम बड़े उत्साह और उमंग के साथ बस द्वारा सतपुड़ा पर्वत श्रेणी पर स्थित सुन्दर पठारों से घिरे ‘सतपुड़ा की रानी‘ पचमढ़ी के लिए रवाना हुए।  भोपाल से पचमढ़ी लगभग 200 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। लगभग 4 घंटे तपते-उबलते जैसे ही हमारी बस पिपरिया से सर्पाकार पहाड़ी घाटी की ओर बढ़ी तो गर्मी के स्थान पर ठंडी हवा के झौंकों ने आकर हमारा स्वागत किया तो मन मयूर नाच उठा और आंखे चारों ओर फैली शस्य-श्यामला और हरे-भरे साल-सागौन, देवदार, नीलगिरि, गुलमोहर और अन्य छोटे-बड़े दुर्लभ किस्म के पेड़-पौधों की मनमोहक दृश्यावली में डूबने-उतरने लगा। चारों ओर  फैली घनेरी झाड़ियों, लताओं, ऊँचे-ऊँचे पेड़-पौधों के रूप  में प्रकृति ने अपने विविध रूप से  "मांसल सी आज हुई थी, हिमवती प्रकृति पाषाणी" (प्रसाद जी) बनकर मन मोह लिया।
पचमढ़ी पहुंचने पर उसकी खूबसूरती और शांति में डूबकर श्रांत-क्लांत मन ताजा हो उठा। पचमढ़ी में ठहरने के लिए टूरिस्ट बंगले, हाॅलीडे होम्स और काॅटेज के साथ ही सस्ते रेस्ट हाउस भी उपलब्ध हैं लेकिन हम सभी सहकर्मियों के लिए आॅफिस की ओर से पंचायत गेस्ट हाउस में खाने-ठहरने की उचित व्यवस्था की गई थी। शाम को सभी पैदल-पैदल पचमढ़ी बाजार की सैर को निकल पड़े। यहाँ के सुव्यवस्थित और पाॅलीथीन मुक्त बाजार देखना शहरवासी के लिए सबक है।  हमारे प्रशिक्षण का समय सुबह 9 बजे से 3 बजे निश्चित था इसलिए उसके मुताबिक ही सबने आपस में मिल बैठ आसपास के दर्शनीय स्थलों जैसे- पांडव गुफा, धूपगढ़, बी फाॅल, अप्सरा फाॅल, रजत प्रपात, जटाशंकर, हांडी खोह, राजेन्द्र गिरि आदि खंगालने का प्रोग्राम बनाया।
 गर्मियों में शरीर को ऊर्जावान व स्वस्थ बनाये रखने के लिए सुबह-सवेरे ताजी हवा में घूम-फिर कर थोड़ा बहुत योग, व्यायाम कर लेना लाभप्रद माना गया है और अगर घूमने-फिरने की जगह कोई हिल स्टेशन हो तो फिर समझो कारूं का खजाना हाथ आ गया। यह बात ध्यान में रखते हुए मैं सुबह 5 बजे पैदल-पैदल सघन वृक्षों से आच्छादित वन गलियारों और घाटियों की मनमोहक दृश्यावली में गोते लगाने निकल पडी। यहाँ मुझे एक ओर सैनिकों का अभ्यास तो दूसरी ओर हरियाली से घिरा राजभवन और कलेक्टर का बंगला देखना बड़ा सुहावना लगा। कभी गर्मियों में एक माह के लिए पूरा मंत्रिमंडल का कुनबा और उच्च शासकीय अधिकारी इसी आरोग्य धाम में आकर सरकार चलाये करते थे। नगरों की बढ़ती पर्यावरण प्रदूषण समस्या से दूर यहाँ शुद्ध हवा के साथ शांत वायुमण्डल पाकर मन तरोताजगी से भर उठा। 
पहले दिन के प्रशिक्षण से छूटते ही लगभग 3 बजे जिप्सी लेकर वी फाॅल और धूपगढ़ के आलौकिक सौन्दर्य देखने निकल पड़े। घने वृक्षों के बीच निकली सड़क के चारों ओर फैली हरियाली, पक्षियों का कलरव, वन्य जन्तुओं की क्रीड़ा देख अभी मन अतृप्त था कि पहाड़ों से फूटते स्वच्छ निर्मल जल स्रोत ने बरबस ही ध्यान आकर्षित किया तो मुंह से भारतेन्दु जी के पंक्ति फूट पड़ी- "नव उज्ज्वल जलधार, हार हीरक-सी सोहती।"ऊँचाई से गिरते बी फाॅल की ठण्डी-ठण्डी फुहारों ने पल भर में शहर की उबासी भरी तपन को निकाल बाहर कर ताजगी भर दी। ताजगी का अहसास लिए हम सूरज ढ़लने से पहले हम सूर्यास्त की सुन्दरता का अद्भुत नजारा देखने धूपगढ़  पहुंचे। यहाँ सतपुड़ा की ऊँची चोटी से एकाग्रचित होकर छोटी-छोटी पहाडि़यों से दूर होते सूरज को बादलों की ओट में छिपते देखना खूबसूरत और यादगार नजारा बन पड़ा। 
दूसरे दिन सुबह हमें पहले योग सिखलाया गया और फिर हमारे घूमने के प्रोग्राम केअनुरूप जल्दी प्रशिक्षण दिया गया। जैसे ही प्रशिक्षण समाप्त हुआ जल्दी से खा-पीकर सभी गुप्त महादेव, बड़ा महादेव, हांडी खोह, पांडव गुफा की सैर को निकल पड़े। सबसे पहले हम पवित्र गुप्त महादेव की गुफा में उनके दर्शनों के लिए संकरी राह से तिरछे-तिरछे होकर सरकते हुए पहुंचे। उसके बाद बन्दरों, लंगूरों की उछलकूद का देखते-दाखते ऊंची-ऊंची चट्टानों के बीच स्थित एक बड़ी गुफा के अंदर बड़े महादेव के दर्शन के लिए आगे बढ़े जहाँ गुफा के अंदर लगातार टपकते पानी को देख शंकर की जटाओं से निकली गंगा के उद्गम का अहसास होता रहा।
शिवदर्शन के बाद हांडीखोह पहुंचते ही यहां बनी रेलिंग प्लेटफार्म से एक ओर घाटी के विहंगम दृश्य देखने को मिला तो दूसरी ओर घने जंगलों से ढकी खाई के इर्द-गिर्द कलकल बहते झरनों की आवाज कानों में मधुर रस घोलने लगी। यहां हमारे सामने एक ओर ऊंचे-ऊंचे पेड़-पौधों से घिरी पहाडि़यों का रोमांच था तो दूसरी ओर हांडीखोह की 300 फीट गहरी खाई का भयानक स्वरूप, जो सुरसा की तरह मुंह फाड़कर निगलने को आतुर नजर आ रही थी।  
यहाँ से आगे बढ़ते हुए हम पचमढ़ी नाम दिलाने वाले पांडव गुफा देखने निकले। यहां पांच गुफानुमा कुटियों को करीब से देखकर सुखद आश्चर्य हुआ। मान्यता है कि कभी वनवास के दौरान लम्बी-चैड़ी कद काठी के महाबलशाली पांडव विशेषकर हजारों हाथियों के बल से अधिक बलशाली लम्बे-चौड़े भीम इनमें कैसे रहे होंगे! गुफाओं के बारे में सोचते-विचारते जैसे ही नीचे तलहटी स्थित खूबसूरत उद्यान पर नजर अटकी तो मोबाइल कैमरे से एक के बाद कई तस्वीर कैद कर डाली। इस पर भी जब मन नहीं भरा तो उद्यान की सैर करते हुए उसकी उपयोगिता और नैसर्गिक सौंदर्य संसार में खो गई। पेड़-पौधे जब पुष्पों-फलों से लदे होते हैं तो अपनी सुगंध से वातावरण को सुगंधित कर पर्यावरण को मोहित करते हैं। मादक महकती बासंती बयार में, मोहक रस पगे फूलों के पराग में, हरे-भरे पौधों की उड़ती बहार में पर्यावरण के दोषों को दूर करने की अद्भुत शक्ति है। इसीलिए वैदिक ऋषि ने इसे महाकाव्य की संज्ञा दी- 'पश्य देवस्य काव्यं न भमार न जीर्यति।'अर्थात् यह ईश्वर का एक महाकाव्य है, जो अमर है, अजर है।  
अंतिम तीसरे दिन प्रशिक्षण समाप्ति के बाद हमने शेष दर्शनीय स्थलों की अधूरी सैर को अगली बार के लिए छोड़ सतपुड़ा की रानीसे विदा लेते हुए घर की राह पकड़ी। रास्ते भर प्राकृतिक दृश्यों के अनन्त, असीम सौन्दर्य में मन डूबता-उतरता रहा।  
   ...... कविता रावत

लोक उक्ति में कविता

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कल्पना पब्लिकेशन, जयपुर ने मेरे पहले लघु कविता संग्रह ‘लोक उक्ति में कविता’ को प्रकाशित कर मेरे भावों को शब्दों में पिरोया है, इसके लिए आभार स्वरूप मेरे पास शब्दों की कमी है; लेकिन भाव जरूर है। भूमिका के रूप में श्रद्धेय डॉ. शास्त्री ‘मयंक’ जी के आशीर्वचनों के लिए मैं नत मस्तक हूँ।
इस लघु कविता संग्रह के माध्यम से शैक्षणिक संस्थाओं के विद्यार्थियों के साथ ही जन-जन तक लोकोक्तियों का मर्म सरल और सहज रूप में पहुंचे, ऐसा मेरा प्रयास रहा है।
इस अवसर पर मैं अपने सभी सम्मानीय ब्लोग्गर्स, पाठकजनों और विभिन्न समाचार पत्र पत्रिकाओं  का भी हृदय से आभार मानती हूँ, जो समय-समय पर ब्लॉग के माध्यम से मुझे लेखन हेतु प्रेरित करते रहते हैं।
मेरे लघु कविता संग्रह की पाण्डुलिपि को आद्योपान्त पढ़कर शुभकामना के रूप में आदरणीय रश्मि दीदी जी के अनमोल आशीष पुष्प को भी मैं तहेदिल से स्वीकार करती हूँ।
अन्त में मैं सम्माननीय रवीन्द्र प्रभात जी द्वारा मेरे भावानुरूप प्रेषित आत्मिक शुभकामना के प्रति आभार व्यक्त करते हुए प्रस्तुत करना चाहूँगी।
इस अवसर पर मुझे मेरे सम्माननीय  ब्लोग्गर्स  और पाठकों की प्रतिक्रिया का भी इंतजार रहेगा।
....... कविता रावत 

                      

अंधेरा काटकर सूरज दिखाती कविता रावत की कविताएं....

कहा गया है, कि साधना जब सरस्वती की अग्निवीणा पर सुर साधती है तो साहित्य की अमृतधारा प्रवाहित होती है, जिससे हित की भावनाएं हिलकोरें मारने लगती है । इन हिलकोरों में जब सृजन की अग्नि की धाह आंच मारती है तो वह कलुषित परिवेश की कालिमा जलाकर उसके बदले एक खुशहाली से भरे विहान को जन्म देती है। सही मायनों में इसी को कविता कहते हैं। मुझे खुशी है कि कविता रावत की लघु काव्य कृति 'लोक उक्ति में कविता'में ये सारे भाव मैंने महसूस किए हैं।
कविता रावत अपनी कविताओं में कहीं आग बोती नज़र आती है तो कहीं आग काटती। ऐसी आग जो आँखों के जाले काटकर पुतलियों को नई दिशा देती है, अंधेरा काटकर सूरज दिखाती है, हिमालय गलाकर वह गंगा प्रवाहित करती है जिससे सबका कल्याण हो। कविता रावत की कविता रुलाती नहीं हँसाती है, सुलाती नहीं जगाती है, मारती नहीं जिलाती है। सचमुच कविता की कविता शाश्वत एवं चिरंतन है।
कविता रावत की कुछ कवितायें मन-मस्तिष्क को आंदोलित करती है, जैसे संगति का प्रभाव,  दुर्जनता का भाव,  वह राष्ट्रगान क्या समझेगा,  भाग्य कुछ भी दान नहीं; उधार देता है,  अभिमान ऐसा फूल है जो शैतान की बगिया में उगता है, बुरी आदत,  गरीब,कमजोर पर हर किसी का जोर चलने लगता है,  हाय पैसा! हाय पैसा.... आदि।
कविता रावत की कविताओं में शब्द-शब्द से दर्शन टपकता नज़र आता है। शायद उन्हें इस बात का भान होगा कि कविता में जीवन दर्शन नहीं हो तो वह निष्प्राण है। कुछ कवितायें तो पत्थरों में भी प्राण-प्रतिष्ठा करती नज़र आती है, जो इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता है। संग्रह की कुछ कवितायें जीवन के प्रति एक गहरी आसक्ति, ललक अर्थात रागधर्मी जीवनोंमुखता व रोमांटिक नवीनता का आभास कराती है । 
यह संग्रह वास्तव में प्राणवान कविताओं की पुष्पांजलि है जिसे कविता रावत ने पूरे मनोयोग से सजाकर माँ सरस्वती की अग्निवीणा को समर्पित करने का प्रयास किया है। यह संग्रह पठनीय ही नहीं सहेजकर रखने योग्य भी है।
अपने अभिप्रेत भाव को तद्भव रूप में संप्रेषित करने की दक्षता के साथ ब्लॉग पर शब्दों,लोकोक्तियों व मुहावरों की सामर्थ्य एवं सीमा का सूक्ष्म संधान करने वाली कविता रावत की लघु काव्य कृति 'लोक उक्ति में कविता' के प्रकाशन पर मेरी अनंत आत्मिक शुभकामनायें।

रवीन्द्र प्रभात
प्रधान संपादक: परिकल्पना समय(मासिक)
एन-1/107, सेक्टर-एन-1, संगम होटल के पीछे, अलीगंज, लखनऊ (उ. प्र.)

जग में कैसा है यह संताप

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कोई भूख से मरता,
       तो कोई चिन्ताओं से है घिरा,
किसी पर दु:ख का सागर
       तो किसी पर मुसीबतों का पहाड़ गिरा।
कहीं बजने लगती हैं शहनाइयाँ
       तो कहीं जल उठता है दु:ख का चिराग,
कहीं खुशी कहीं फैला दु:ख
       जग में कैसा है यह संताप।।

कोई धनी तो कोई निर्धन
       किसी को निराशा ने है सताया
प्रभु की यह कैसी लीला!
       किसी को सुखी, किसी को दु:खी बनाया।
किसी की बिगड़ती दशा
       तो किसी के खुल जाते हैं भाग,
देख न पाता कोई कभी खुशियाँ
       जग में कैसा है यह संताप।।

कोई सिखाता है प्रेमभाव
       पर किसी की आँखों में झलकती नफरत,
कोई दिल में भरता खुशियाँ
       तो कोई भरता है दिल में उलफत।
किसी के सीने में दर्द छिपा
       कोई उगलता शोलों की आग
कोई संकोच, कोई दहशत में
       जग में कैसा है यह संताप।।

कोई शोषित, कोई पीड़ित
       किसी को निर्धनता ने है मारा,
कोई मजबूर कोई असहाय
       किसी को समाज ने है धिक्कारा।
सजा मिलती किसी और को
       पर कोई और ही करता है पाप
कहीं धोखा, कहीं अन्याय फैला
       जग में कैसा है यह संताप।।


कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद

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          हिन्दी साहित्य की आजीवन सेवा कर हिन्दी-गद्य का रूप स्थिर करने, उपन्यास-साहित्य को मानव-जीवन से संबंधित करने एवं कहानी को साहित्य-जगत् में अग्रसर करने वाले महामानव मुंशी प्रेमचंद का जन्म बनारस से चार मील दूर लमही ग्राम में 31 जुलाई, 1880 को हुआ। उनकी आरंभिक शिक्षा उर्दू, फारसी से हुई। सात वर्ष की अवस्था में माता और चैदह वर्ष की अवस्था में पिता के देहान्त के बाद उनका संषर्घमय जीवन शुरू किया हुआ, जिसने मृत्युपर्यन्त उनका साथ नहीं छोड़ा। पन्द्रह वर्ष की आयु में विवाह हुआ जो सफल नहीं रहा तो उन्होंने बाल-विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया, जिनसे उनकी तीन संताने हुई- श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव।
अध्यापन से जीविका चलाने वाले प्रेमचन्द जी पहले उर्दू में ‘धनपत राय’ नाम से लिखते रहे। उर्दू में उनका पहला उपलब्ध उपन्यास ‘असरारे मआबिद’ माना जाता है। उनका आरंभिक लेख उर्दू में प्रकाशित होने वाली 'जमाना पत्रिका'में छपते रहे। इस पत्रिका के सम्पादक मुंशी दयानारायण निगम की सलाह पर उन्होंने हिन्दी में ‘प्रेमचंद’ नाम से वर्ष 1915-16 से लिखना आरम्भ किया। लगभग 20 वर्ष की अल्पावधि में उन्होंने 11-12 उपन्यास और लगभग 300 से अधिक कहानी तथा नाटक लिखकर हिन्दी-साहित्य को समृद्ध किया। 
मुंशी प्रेमचंद का प्रगतिशील सुधारवादी दृष्टिकोण सदा उनके सम्मुख रहा है। उन्होंने विधवा-विवाह पर रोक, बाल-विवाह, दहेज, अनमेल विवाह, वृद्ध विवाह, आभूषण प्रियता, वेश्या जीवन आदि सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के निमित्त ‘सेवासदन’, गबन, निर्मला जैसे कालजयी उपन्यास लिखे। वेे शताब्दियों से पददलित और उपेक्षित, अपमानित कृषकों की आवाज और परदे में कैद, पग-पग पर लांछित और अपमानित असहाय नारी जाति की महिमा के जबरदस्त वकील माने जाते हैं । उन्होंने अपने उपन्यास, कहानी आदि में जिस तरह सीधी-सादी, मंजी हुई परिष्कृत संस्कृत पदावली से प्रौढ़ और उर्दू से चंचल भाषा के साथ प्रचलित ग्रामीण शब्दों से भरे मुहावरों और कहावतों का प्रयोग कर सहज रूप दिया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। प्रेमचंद जी का  लेखन आज भी इतना प्रासंगिक है कि बड़े-छोटे सभी प्रकाशक समय-समय उनके उपन्यास, कहानी प्रकाशित कर जनमानस तक सुगमता से पहुंचाने का काम कर रहे हैं। इंटरनेट पर उनके साहित्य को सहजने का जो सराहनीय प्रयास भारत कोश द्वारा किया गया है वह अभूतपूर्व और अनुकरणीय है। 
मुंशी प्रेमचंद जी को 'कलम के सिपाही', 'कलम के जादूगर'या फिर 'उपन्यास सम्राट'किसी भी नाम से जानिये उनके   बारे में आज जो भी जितना चाहे लिखे, वह अत्यल्प होगा। प्रेमचंद जी मेरे पंसदीदा लेखकों में से एक हैं। उनकी कहानी हो या उपन्यास जितनी बार पढ़ती हूंँ, उतनी बार मुझे उनमें नयापन नजर आता है। प्रेमचंद जयंती के अवसर पर उनके लिए ‘हिन्दी साहित्य’ में उद्धृत आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का कथन समीचीन होगा- "अगर आप उत्तर भारत की समस्त जनता के आचार-विचार, भाषा-भाव, रहन-सहन, आशा-आकांक्षा, दुःख-सुख और सूझ-बूझ जानना चाहते  हैं तो प्रेमचंद जी से उत्तम परिचायक आपको नहीं मिल सकता। झोपडि़यों से लेकर महलों तक, खोमचे वालों से लेकर बैंकों तक, गांव से लेकर धारा-सभाओं तक आपको इतने कौशलपूर्वक और प्रामाणिक भाव से कोई नहीं ले जा सकता। आप बेखटके प्रेमचंद का हाथ पकड़ कर मेढ़ों पर गाते हुए किसान को, अंतःपुर में मान किए बैठी प्रियतमा को, कोठे पर बैठी हुई वार-वनि-वनिता को, रोटियों के लिए ललकते हुए भिखमंगों को, कूट परामर्श में लीन गोयन्दों को, ईर्ष्या- परायण प्रोफेसरों को, दुर्बल-हृदय बैंकरों को, साहस-परायण चमारिन को, ढ़ोंगी पंडितों को, फरेबी पटवारी को, नीचाशय अमीर को देख सकते हैं और निश्चिन्त होकर विश्वास कर सकते हैं कि जो कुछ आपने देखा, वह गलत नहीं है।"

...कविता रावत


भाई-बहिन का स्नेहिल बंधन है रक्षाबंधन

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हमारी भारतीय संस्कृति में अलग-अलग प्रकार के धर्म,  जाति,  रीति,  पद्धति,  बोली, पहनावा, रहन-सहन के लोगों के अपने-अपने उत्सव, पर्व, त्यौहार हैं,  जिन्हें वर्ष भर बड़े धूमधाम से मनाये जाने की सुदीर्घ परम्परा है। ये उत्सव, त्यौहार, पर्वादि हमारी भारतीय संस्कृति की अनेकता में एकता की अनूठी पहचान कराते हैं। रथ यात्राएं हो या ताजिए या फिर किसी महापुरुष की जयंती, मन्दिर-दर्शन हो या कुंभ-अर्द्धकुम्भ या स्थानीय मेला या फिर कोई तीज-त्यौहार जैसे- रक्षाबंधन, होली, दीवाली, जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, शिवरात्रि, क्रिसमस या फिर ईद सर्वसाधारण अपनी जिन्दगी की भागदौड़, दुःख-दर्द, भूख-प्यास सबकुछ भूल कर मिलजुल के उल्लास, उमंग-तरंग में डूबकर तरोताजा हो उठता है।
इन सभी पर्व, उत्सव, तीज-त्यौहार, या फिर मेले आदि को जब जनसाधारण जाति-धर्म, सम्प्रदाय से ऊपर उठकर मिलजुलकर बड़े धूमधाम से मनाता है तो उनके लिए हर दिन उत्सव का दिन बन जाता है। इन्हीं पर्वोत्सवों की सुदीर्घ परम्परा को देख हमारी भारतीय संस्कृति पर "आठ वार और नौ त्यौहार"वाली उक्ति चरितार्थ होती है।
परिवर्तन समाज की अनिवार्य प्रक्रिया है, युग का धर्म है। परिवर्तन हमारी संस्कृति की जीवंतता का प्रतीक है।  इसने न अतीत की विशेषताओं से मुंह मोड़ा ना ही आधुनिकता की उपयोगिता को अस्वीकारा, तभी तो महाकवि इकबाल कहते हैं-
"यूनान, मिश्र, रोमां , सब मिट गये जहाँ से ।
अब तक मगर है बाकी , नाम-ओ-निशां हमारा ।।
कुछ बात है कि हस्ती , मिटती नहीं हमारी ।
सदियों रहा है दुश्मन , दौर-ए-जहाँ हमारा ।।"
रक्षाबंधन पर्व बहिन द्वारा भाई की कलाई में राखी बांधने का त्यौहार भर नहीं है, यह एक कोख से उत्पन्न होने के वाले भाई की मंगलकामना करते हुए बहिन द्वारा रक्षा सूत्र बांधकर उसके सतत् स्नेह और प्यार की निर्बाध आकांक्षा भी है। युगों-युगों से चली आ रही परम्परानुसार जब बहिन विवाहित होकर अपना अलग घर-संसार बसाती है और पति, बच्चों, पारिवारिक दायित्वों और दुनियादारी में उलझ जाती है तो वह मातृकुल के एक ही मां के उत्पन्न भाई और सहोदर से मिलने का अवसर नहीं निकाल पाती है, जिससे विवशताओं के चलते उसका अंतर्मन कुंठित हो उठता है। ऐसे में ‘रक्षाबंधन‘ और भाई दूज, ये दो पर्व भाई-बहिन के मिलन के दो पावन प्रसंग हैं। इस पावन प्रसंग पर कई  बहिन बर्षों से सुदूर प्रदेश में बसे भाई से बार-बार मनुहार करती है-
"राह ताक रही है तुम्हारी प्यारी बहना 
अबकी बार राखी में जरुर घर आना 
न चाहे धन-दौलत, न तन का गहना 
बैठ पास बस दो बोल मीठे बतियाना 
मत गढ़ना फिर से कोई नया बहाना 
राह ताक रही है तुम्हारी प्यारी बहना
अबकी बार राखी में जरुर घर आना "
गाँव-देश छोड़ अब तू परदेश बसा है
बिन तेरे घर अपना सूना-सूना पड़ा है 
बूढ़ी दादी और माँ का है एक सपना
 नज़र भरके नाती-पोतों को है देखना
 लाना संग हसरत उनकी पूरी करना 
राह ताक रही है तुम्हारी प्यारी बहना 
अबकी बार राखी में जरुर घर आना
भागदौड़ भरी जिन्दगी के बीच आज भी राखी का त्यौहार बड़े उत्साह और उमंग से मनाया जाना हमारी भारतीय संस्कृति की जीवंतता का परिचायक है।  इस अद्भुत्, अमूल्य, अनंत प्यार के पर्व का हर बहिन महीनों पहले से प्रतीक्षा करती है। पर्व समीप आते ही बाजार में घूम-घूम कर मनचाही राखी खरीदती है। वस्त्र, आभूषणों आदि की खरीदारी करती है। बच्चों को उनके मामा-मिलन के लिए आत्मीय भाव से मन में उत्सुकता जगाती है। घर-आंगन की साफ-सफाई करती है। स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर और नये कपड़ों में सज-धज परिवार में असीम आनंद का स्रोत बहाती है। यह हमारी भारतीय संस्कृति की विलक्षणता है कि यहाँ देव-दर्शन पर भेंट चढ़ाने की प्रथा कायम है, अर्पण को श्रृद्धा का प्रतीक मानती है। अर्पण फूल-पत्तियों का हो या राशि का कोई फर्क नहीं। राखी के अवसर पर एक ओर भाई देवी रूपी बहिन के घर जाकर मिष्ठान, फूल, नारियल आदि के साथ "पत्रं-पुष्पं-फलं सोयम"की भावना से यथा सामर्थ्य दक्षिणा देकर खुश होता है तो दूसरी ओर एक-दूसरे की आप-बीती सुनकर उसके परस्पर समाधान के लिए कृत संकल्पित होते हैं।  इस तरह यह एक तरफ परस्पर दुःख, तकलीफ समझने का प्रयत्न है, तो दूसरी ओर सुख, समृद्धि में भागीदारी बढ़ाने का सुअवसर भी है। 

           ......कविता रावत 

स्वतंत्रता आन्दोलन में साहित्य की भूमिका

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यह सभी जानते हैं कि 15 अगस्त 1947 को हमारा देश स्वतंत्र हुआ। यह हमारे राष्ट्रीय जीवन में हर्ष और उल्लास का दिन तो है ही इसके साथ ही स्वतंत्रता की खातिर अपने प्राण न्यौछावर करने वाले शहीदों का पुण्य दिवस भी है। देश की स्वतंत्रता के लिए 1857 से लेकर 1947 तक क्रांतिकारियों व आन्दोलनकारियों के साथ ही लेखकों, कवियों और पत्रकारों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी गौरव गाथा हमें प्रेरणा देती है कि हम स्वतंत्रता के मूल्य को बनाये रखने के लिए कृत संकल्पित रहें।
          प्रेमचंद की 'रंगभूमि, कर्मभूमि'उपन्यास, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का 'भारत -दर्शन'नाटक, जयशंकर प्रसाद का 'चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त'नाटक आज भी उठाकर पढि़ए देशप्रेम की भावना जगाने के लिए बड़े कारगर सिद्ध होंगे। वीर सावरकर की "1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम"हो या पंडित नेहरू की 'भारत एक खोज'या फिर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की 'गीता रहस्य'या शरद बाबू का उपन्यास 'पथ के दावेदार'जिसने भी इन्हें पढ़ा, उसे घर-परिवार की चिन्ता छोड़ देश की खातिर अपना सर्वस्व अर्पण करने के लिए स्वतंत्रता के महासमर में कूदते देर नहीं लगी।
          राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्ता ने “भारत-भारती“ में देशप्रेम की भावना को सर्वोपरि मानते हुए आव्हान किया-
“जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है।।“
देश पर मर मिटने वाले वीर शहीदों के कटे सिरों के बीच अपना सिर मिलाने की तीव्र चाहत लिए सोहन लाल द्विवेदी ने कहा-
“हो जहाँ बलि शीश अगणित, एक सिर मेरा मिला लो।“
          वहीं आगे उन्होंने “पुष्प की अभिलाषा“ में देश पर मर मिटने वाले सैनिकों के मार्ग में बिछ जाने की अदम्य इच्छा व्यक्त की-
“मुझे तोड़ लेना बनमाली! उस पथ में देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जायें वीर अनेक।।
          सुभद्रा कुमारी चौहान की “झांसी की रानी"कविता को कौन भूल सकता है, जिसने अंग्रेजों की चूलें हिला कर रख दी। वीर सैनिकों में देशप्रेम का अगाध संचार कर जोश भरने वाली अनूठी कृति आज भी प्रासंगिक है-
“सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढे़ भारत में भी आई, फिर से नई जवानी थी,
गुमी हुई आजादी की, कीमत सबने पहिचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,
चमक उठी सन् सत्तावन में वह तनवार पुरानी थी,
बुन्देले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी की रानी थी।“
          “पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं“ का मर्म स्वाधीनता की लड़ाई लड़ रहे वीर सैनिक ही नहीं वफादार प्राणी भी जान गये तभी तो पं. श्याम नारायण पाण्डेय ने महाराणा प्रताप के घोड़े ‘चेतक’ के लिए "हल्दी घाटी"में लिखा-
“रणबीच चौकड़ी भर-भरकर, चेतक  बन गया निराला था,
राणा प्रताप के घोड़े से, पड़ गया हवा का पाला था,
गिरता न कभी चेतक  तन पर, राणा प्रताप का कोड़ा था,
वह दौड़ रहा अरि मस्तक पर, या आसमान पर घोड़ा था।“
          देशप्रेम की भावना जगाने के लिए जयशंकर प्रसार ने "अरुण यह मधुमय देश हमारा"सुमित्रानंदर पंत ने "ज्योति भूमि, जय भारत देश।"निराला ने "भारती! जय विजय करे। स्वर्ग सस्य कमल धरे।।"कामता प्रसाद गुप्त ने "प्राण क्या हैं देश के लिए के लिए। देश खोकर जो जिए तो क्या जिए।।"इकबाल ने "सारे जहाँ से अच्छा हिस्तोस्ताँ हमारा" तो बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' ने 'विप्लव गान'में 
''कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाये
एक हिलोर इधर से आये, एक हिलोर उधर को जाये
नाश ! नाश! हाँ महानाश! ! ! की
प्रलयंकारी आंख खुल जाये।" 
           कहकर रणबांकुरों में नई चेतना का संचार किया। इसी श्रृंखला में शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, रामनरेश त्रिपाठी,  रामधारी सिंह ‘दिनकर’ राधाचरण गोस्वामी, बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन, राधाकृष्ण दास, श्रीधर पाठक, माधव प्रसाद शुक्ल, नाथूराम शर्मा शंकर, गया प्रसाद शुक्ल स्नेही (त्रिशूल), माखनलाल चतुर्वेदी, सियाराम शरण गुप्त, अज्ञेय जैसे अगणित कवियों के साथ ही बंकिम चन्द्र चटर्जी का देशप्रेम से ओत-प्रोत “वन्दे मातरम्“ गीत-
वन्दे मातरम्!
सुजलां सुफलां मलयज शीतलां
शस्य श्यामलां मातरम्! वन्दे मातरम्!
शुभ्र ज्योत्स्ना-पुलकित-यामिनीम्
फुल्ल-कुसुमित-दु्रमदल शोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरत्। वन्दे मातरम्! “
...........................जो आज हमारा राष्ट्रीय गीत है, जिसकी श्रद्धा, भक्ति व स्वाभिमान की प्रेरणा से लाखों युवक हंसते-हंसते देश की खातिर फांसी के फंदे पर झूल गये। वहीं हमारे राष्ट्रगान "जनगण मन अधिनायक"के रचयिता रवीन्द्र नाथ ठाकुर का योगदान अद्वितीय व अविस्मरणीय है।
          स्वतंत्रता दिवस के सुअवसर पर बाबू गुलाबराय का कथन समीचीन है - "15 अगस्त का शुभ दिन भारत के राजनीतिक इतिहास में सबसे अधिक महत्व है। आज ही हमारी सघन कलुष-कालिमामयी दासता की लौह श्रृंखला टूटी थीं। आज ही स्वतंत्रता के नवोज्ज्वल प्रभात के दर्शन हुए थे। आज ही दिल्ली के लाल किले पर पहली बार यूनियन जैक के स्थान पर सत्य और अहिंसा का प्रतीक तिरंगा झंडा स्वतंत्रता की हवा के झौंकों से लहराया था। आज ही हमारी नेताओं के चिरसंचित स्वप्न चरितार्थ हुए थे। आज ही युगों के पश्चात् शंख-ध्वनि के साथ जयघोष और पूर्ण स्ततंत्रता का उद्घोष हुआ था।"

ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आंख में भर लो पानी गीत को याद करते हुए सभी देशवासियों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं सहित

जय हिन्द! जय भारत!

     ......कविता रावत

जन्माष्टमी: श्रीकृष्ण जन्मोत्सव

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मान्यता है कि त्रेता युग में  'मधु'नामक दैत्य ने यमुना के दक्षिण किनारे पर एक शहर ‘मधुपुरी‘ बसाया। यह मधुपुरी द्वापर युग में शूरसेन देश की राजधानी थी। जहाँ अन्धक, वृष्णि, यादव तथा भोज आदि सात वंशों ने राज्य किया। द्वापर युग में भोजवंशी उग्रसेन नामक राजा राज्य करता था, जिसका पुत्र कंस था।  कंस बड़ा क्रूर, दुष्ट, दुराचारी और प्रजापीड़क था। वह अपने पिता उग्रसेन को गद्दी से उतारकर स्वयं राजा बन बैठा। उसकी एक बहन थी, जिसका नाम देवकी था। वह अपनी बहन से बहुत प्यार करता था। जब उसका विवाह यादववंशी वसुदेव से हुआ तो वह बड़ी खुशी से उसे विदा करने निकला तो रास्ते में आकाशवाणी हुई  कि- "हे कंस! जिस बहन को तू इतने लाड़-प्यार से विदा कर रहा है, उसके गर्भ से उत्पन्न आठवें पुत्र द्वारा तेरा अंत होगा।"यह सुनकर उसने क्रोधित होकर देवकी को मारने के लिए तलवार निकाली, लेकिन वसुदेव के समझाने और देवकी की याचना पर उसने इस शर्त पर उन्हें हथकड़ी लगवाकर कारागार में डलवा दिया कि उनकी जो भी संतान होगी वह उसे सुपुर्द कर देंगे। एक के बाद एक सात संतानों को उसने जन्म लेते ही मौत के घाट उतार दिया। 
          आकाशवाणी के अनुसार जब आठवीं संतान होने का निकट समय आया तो उसने पहरा और कड़ा कर दिया। लेकिन ईश्वर की लीला कौन रोक पाता? वह समय भी आया जब भादों मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में घनघोर अंधकार और मूसलाधार वर्षा में भगवान विष्णु के आठवें अवतार के रूप में ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुस्कृताम'तथा 'धर्म संस्थापनार्थाय'अर्थात् दुराचरियों का विनाश कर साधुओं के परित्राण और धर्म की स्थापना हेतु भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुए। 
       
कंस इस बात से अनभिज्ञ था कि ईश्वर जन्म नहीं वह तो अवतरित होते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने अवतरण के साथ ही अपनी लीलायें आरम्भ कर दी। अवतरित हुए तो जेल के पहरेदार गहरी नींद में सो गये। वसुदेव-देवकी की हथकडि़यां अपने आप खुल गई। आकाशवाणी हुई तो वसुदेव के माध्यम से सूपे में आराम से लेट गये और उन्हें उफनती यमुना नदी पार करवाकर नंदबाबा व यशोदा के धाम गोकुल पहुंचा दिया। जहाँ नंदनंदन और यशोदा के लाड़ले कन्हैया बनकर उनका जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया गया। आज भी यह सम्पूर्ण भारत के साथ ही विभिन्न देशों में भी मनाया जाता है। मथुरा तथा वृन्दावन में यह सबसे बड़े त्यौहार के रूप में बड़े उत्साह के साथ 10-12 दिन तक बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। मंदिर में श्रीकृष्ण की अपूर्व झांकियां सजाई जाती हैं। यहाँ श्रद्धालु जन्माष्टमी के दिन मथुरा के द्वारिकाधीश मंदिर में रखे सवा लाख के हीरे जडि़त झूले में भगवान श्रीकृष्ण को झूलता देख, खुशी से झूमते हुए धन्य हो उठते हैं।
           बहुमुखी व्यक्तित्व के स्वामी श्रीकृष्ण आत्म विजेता, भक्त वत्सल तो थे ही साथ ही महान राजनीतिज्ञ भी थे, जो कि महाभारत में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। श्रीकृष्ण ने अत्याचारी कंस को मारकर उग्रसेन को राजगद्दी पर बिठाया। महाभारत के युद्धस्थल में मोहग्रस्त अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए अपना विराट स्वरुप दिखाकर उनका मोह से मुक्त कर जन-जन को ‘कर्मण्येवाधिकारिस्ते मा फलेषु कदाचन‘ का गुरु मंत्र दिया। वे एक महान धर्म प्रवर्तक भी थे, जिन्होंने ज्ञान, कर्म और भक्ति का समन्व्य कर भागवत धर्म का प्रवर्तन किया। योगबल और सिद्धि से वे योगेश्वर (योग के ईश्वर) कहलाये। अर्थात योग के श्रेष्ठतम ज्ञाता, व्याख्याता, परिपालक और प्रेरक थे, जिनकी लोक कल्याणकारी लीलाओं से प्रभावित होकर वे आज न केवल भारत अपितु सम्पूर्ण विश्व में पूजे जाते हैं।
         भगवान श्रीकृष्ण के अवतार के सम्बन्ध में सूर्यकान्त बाली जी ने बहुत ही सुन्दर और सार्थक ढंग से लिखा है कि- “कृष्ण का भारतीय मानस पर प्रभाव अप्रतिम है, उनका प्रभामंडल विलक्षण है, उनकी स्वीकार्यता अद्भुत है, उनकी प्रेरणा प्रबल है, इसलिए साफ नजर आ रहे उनके निश्चित लक्ष्यविहीन कर्मों और निश्चित निष्कर्षविहीन विचारों में ऐसा क्या है, जिसने कृष्ण को कृष्ण बना दिया, विष्णु का पूर्णावतार मनवा दिया? कुछ तो है। वह ‘कुछ’ क्या है?  कृष्ण के जीवन की दो बातें हम अक्सर भुला देते हैं, जो उन्हें वास्तव में अवतारी सिध्द करती हैं। एक विशेषता है, उनके जीवन में कर्म की निरन्तरता। कृष्ण कभी निष्क्रिय नहीं रहे। वे हमेशा कुछ न कुछ करते रहे। उनकी निरन्तर कर्मशीलता के नमूने उनके जन्म और स्तनंध्य शैशव से ही मिलने शुरू हो जाते हैं। इसे प्रतीक मान लें (कभी-कभी कुछ प्रतीकों को स्वीकारने में कोई हर्ज नहीं होता) कि पैदा होते ही जब कृष्ण खुद कुछ करने में असमर्थ थे तो उन्होंने अपनी खातिर पिता वसुदेव को मथुरा से गोकुल तक की यात्र करवा डाली। दूध् पीना शुरू हुए तो पूतना के स्तनों को और उनके माधयम से उसके प्राणों को चूस डाला। घिसटना शुरू हुए तो छकड़ा पलट दिया और ऊखल को फंसाकर वृक्ष उखाड़ डाले। खेलना शुरू हुए तो बक, अघ और कालिय का दमन कर डाला। किशोर हुए तो गोपियों से दोस्ती कर ली। कंस को मार डाला। युवा होने पर देश में जहां भी महत्वपूर्ण घटा, वहां कृष्ण मौजूद नजर आए, कहीं भी चुप नहीं बैठे, वाणी और कर्म से सक्रिय और दो टूक भूमिका निभाई और जैसा ठीक समझा, घटनाचक्र को अपने हिसाब से मोड़ने की पुरजोर कोशिश की। कभी असफल हुए तो भी अगली सक्रियता से पीछे नहीं हटे। महाभारत संग्राम हुआ तो उस योध्दा के रथ की बागडोर संभाली, जो उस वक्त का सर्वश्रेष्ठ  धनुर्धारी था। विचारों का प्रतिपादन ठीक युध्द क्षेत्र में किया। यानी कृष्ण हमेशा सक्रिय रहे, प्रभावशाली रहे, छाए रहे।"
कृष्ण जन्मस्थली मथुरा का चित्र गूगल से साभार 

 सभी श्रद्धालु जनों को  भगवान श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें! 
        …कविता रावत 

गणेशोत्सव

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भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के बाद इन दिनों भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी से लेकर अनंत चतुर्दशी तक दस दिन तक चलने वाले भगवान गणेश जी के जन्मोत्सव की धूम मची है। एक ओर जहाँ शहर के विभिन्न स्थानों पर स्थानीय और दूर-दराज से आये अधिकांश मूर्तिकारों द्वारा प्लास्टर आॅफ पेरिस के स्थान पर पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए मिट्टी से भगवान श्रीगणेश की मनमोहक प्रतिमाओं का निर्माण किया गया है वहीं दूसरी ओर गली-मोहल्लों और बाजारों  में गणपति स्थापना हेतु बने चबूतरों की साफ-सफाई और विद्युत् साज-सज्जा में रात-दिन जुटकर श्रद्धालुजनों  ने पांडालों को सजाया है।
 इसके साथ ही भगवान गणेश घर-घर में विराजमान होकर सुशोभित हैं। हमारे घर में भी गत पाँच वर्ष जब से मेरे शिवा ने होश संभाला उसके गणेश प्रेम और जिद्द से भगवान गणेश की स्थापना की जा रही है। इस बारे में मैंने उसके बारे में अपने ब्लाॅग पर गणपति में रमें बच्चे  नाम से एक पोस्ट लिखी। तब मेरा शिवा पहली कक्षा में पढ़ता था। अब वह तीसरी कक्षा में है और हिन्दी-अंग्रेजी बहुत अच्छे से पढ़ लेता है। इसके साथ ही भले ही उनके स्कूल में संस्कृत छठवीं कक्षा से पढ़ाई जाती है, लेकिन उसे अभी से संस्कृत पढ़ने में विशेष रूचि है। इसी के चलते वह चुपके से एक कापी में किसी किताब या समाचार पत्र-पत्रिका से गणेश जी से बारे में छपा चुपके-छुपके लिखता रहता है और उनकी विभिन्न आकृतियां उकेरता रहता है। अभी उसने मुझे अपनी कापी में लिखे भगवान गणेश के संस्कृत नाम- ऊँ गणाधिपतये नमः, ऊँ विध्ननाशाय नमः, ऊँ ईशपुत्राय नमः, ऊँ सर्वासिद्धिप्रदाय नमः, ऊँ एकदंताय नमः, ऊँ कुमार गुरवे नमः, ऊँ मूषक वाहनाय नमः, ऊँ उमा पुत्राय नमः, ऊँ विनायकाय नमः, ऊँ ईशवक्त्राय नमः पढ़कर सुनाये तो मुझे आश्चर्य हुआ। जिज्ञासावश पूछा तो  बताया कि दीदी से मैंने पढ़ना सीखा है और अबकी बार गणेशजी की पूजा मैं खुद ही करूँगा इसके लिए आपको मेरे गणपति के लिए लड्डू और मोदक  बनाने होंगे।
हर दिन आॅफिस की ड्यूटी तो बजाते ही हैं अब बच्चे ने ड्यूटी लगाई है तो मैंने भी लड्डू और मोदक बनाने की तैयारी कर ली है। बस इंतजार है तो गणेश चतुर्थी की छुट्टी का। इसके साथ ही पापा की ड्यूटी  हर शाम शहर के विभिन्न जगहों पर विराजमान गणेशजी की प्रतिमाओं और झाकियों को दिखाने की लगा रखी  है।
हमारे घर के ठीक सामने एक फूल का पेड़ है। गर्मियों में मैं हर दिन उसे खूब पानी देती रही, फिर भी मुझे वह कभी खिला नजर नहीं आया; मुरझाया ही दिखा। लेकिन बरसात की पहली फुहार क्या पड़ी कि वह खिल उठा और फूलों से लद गया। यह प्रकृति का कमाल है। अब उसे देख लगता है जैसे उसे भी गणेशोत्सव की खबर पहले से ही लग गई, तभी तो वह फूलों से लदकर गणेश जी के स्वागत के तैयार है। अब हर सुबह मुझे जल्दी बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करने के बाद गणपति जी के लिए पहले फूल तोड़कर माला बनाने फिर लड्डू, मोदक का भोग लगाने की अतिरिक्त ड्यूटी तो निभानी है, साथ-साथ आॅफिस की तैयारी भी करनी है। भले ही अतिरिक्ति भागमभाग में दिन बीतेगा लेकिन मैं जानती हूँ गणपति जी की कृपा से इसमें में भी आनन्द की अनुभूति होगी क्योंकि कलियुग में शक्ति और विध्नेश्वर कहलाने वाले भगवान गणेश की उपासना शीघ्र फलदायी जो मानी गई है। यही सोचकर भक्ति भाव और बच्चों की खुशी की खातिर शरीर में तरोताजगी महसूस कर अपने काम में जुटी रहती हूँ ।     
भगवान गणेश जी सर्वत्र किसी न किसी रूप में पूजे जाते हैं, उनके बारे में जितना कहा जाय, लिखा जाय कम है। आज सिंघ और तिब्बत से लेकर जापान और श्रीलंका तक तथा भारत में जन्मे प्रत्येक विचार एवं विश्वास में गणपति समाए हैं। जैन सम्प्रदाय में ज्ञान का संकलन करने वाले गणेश या गणाध्यक्ष की मान्यता है तो बौद्ध के वज्रयान शाखा का विश्वास कभी यहां तक रहा है कि गणपति के स्तुति के बिना मंत्रसिद्धि नहीं हो सकती। नेपाल तथा तिब्बत के वज्रयानी बौद्ध अपने आराध्य तथागत की मूर्ति के बगल में गणेश जी को स्थापित रखते रहे हैं। सुदूर जापान तक बौद्ध प्रभावशाली राष्ट्र में भी गणपति पूजा का कोई न कोई रूप मिल जाता है। प्रत्येक मनुष्य अपने शुभ कार्य को निर्विध्न समाप्त करना चाहता है। गणपति मंगल-मूर्ति हैं, विध्नों के विनाशक हैं। इसलिए इनकी पूजा सर्वप्रथम होती है। शास्त्रों में गणेश को ओंकारात्मक माना गया है, अतः उनका सबसे पहले पूजन होता है। 
भगवान गणेश जी के अनूठी शारीरिक संरचना से हमें बहुत सी बातें सीखने को मिलती है। जैसे- उनका बड़ा मस्तक  हमें बड़ी और फायदेमंद बातें सोचने के लिए प्रेरित करता है तो छोटी-छोटी आंखे हाथ में लिए कार्यों को उचित ढंग से और शीघ्र पूरा करने की ओर इशारा करती हैं।  उनके सूप जैसे बड़े कान हमें नये विचारों और सुझावों को धैर्यपूर्वक सुनने की सीख देते हैं तो लम्बी सूंड हमें अपने चारों ओर की घटनाओं की जानकारी और ज्यादा सीखने के लिए प्रेरित करती हैं ।  उनका छोटा मुंह हमें कम बोलने की याद दिलाता है तो जीभ हमें तोल मोल के बोल की सीख देती है। 

जय श्री गणेश!
 
सभी को गणेशोत्सव की हार्दिक शुभकामनायें 
        कविता रावत  

गूगल बाबा Google Baba

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हम सबके प्यारे गूगल बाबा
सारे जग से न्यारे गूगल बाबा

सबको राह दिखाते गूगल बाबा
दुनिया एक सिखाते गूगल बाबा

सबकी खबर लेते गूगल बाबा
सबको खबर देते गूगल बाबा

कभी न थकते गूगल बाबा
चलते रहते गूगल बाबा

देश विदेश घुमाते गूगल बाबा
मेल मिलाप कराते गूगल बाबा

रंगभेद,जातपात मिटाते गूगल बाबा
सब इंसान एक बताते गूगल बाबा

हर प्रश्न का हल है गूगल बाबा
खट्टा-मीठा फल है गूगल बाबा

सब तेरे गुणगान करें गूगल बाबा
तेरा ही ध्यान धरें गूगल बाबा

दुनिया  की तेज रेल हैं गूगल बाबा
जिसके आगे सब फेल हैं बाबा

बच्चे बोले जय गूगल बाबा!
जवान बोले जय गूगल बाबा!

बूढे़ भी बोले जय गूगल बाबा!
जय हो तेरी गूगल बाबा!


जय हो तेरी गूगल बाबा!
तेरी जय जय गूगल बाबा!


.....कविता रावत

हिन्दी दिवस: दो पाटन के बीच में

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किसी भी देश में राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान, राष्ट्र चिन्ह की भांति ही राष्ट्रभाषा का भी बराबर  महत्व होता है। जिस व्यक्ति के मन में इन सबका सम्मान नहीं, उसकी राष्ट्र के प्रति भी अपनी कोई आस्था नहीं हो सकती है। राष्ट्रभाषा किसी भी स्वतंत्र देश की संपत्ति होती है और हमारे देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी है। राष्ट्रभाषा का महत्व राष्ट्रीय सम्मान की दृष्टि से होता है। एक ही राष्ट्र के निवासी जब आपस में मिलने पर बात विदेशी भाषा में करें तो यह एक सीधे से अर्थ में विपत्ति टूटना है। एक ही घर के दो व्यक्ति किसी विदेशी भाषा को अभिव्यक्ति का माध्यम बनायें तो माना जा सकता है कि वह दोनों वैचारिक स्तर पर दरिद्र हैं। दूसरे देश से भाषा का आयात कर अपना काम चलाना किसी भिखारीपन से कम नहीं कहा जा सकता। जिसकी अपनी भाषा है वह दूसरे की भाषा का सम्मान तो कर सकता है मगर दूसरी भाषा पर आश्रित होना दिवालियेपन से कम नहीं। राष्ट्रभाषा के बिना किसी भी राष्ट्र की उन्नति अधूरी है। अपनी राष्ट्रभाषा के प्रयोग से जो आत्मीयता का बोध होता है, वह किसी दूसरी भाषा से नहीं हो सकता है। तभी तो भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी कहते हैं कि-
निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को शूल।।
          राष्ट्रभाषा राष्ट्र की आत्मा का प्रतीक है। हमारे साथ स्वतंत्र होने वाले पाकिस्तान ने उर्दू को राष्ट्रभाषा घोषित किया तो तुर्की के जनप्रिय नेता कमाल पाशा ने स्वतंत्र होने के तत्काल पश्चात् वहां तुर्की को राष्ट्रभाषा बना दिया। इतना ही नहीं अपने नाम के साथ ‘पाशा’ विदेशी शब्द हटाकर अपना नाम कमाल अतार्तुक कर दिया। हमारे पश्चात् स्वतंत्र होने वाले अनेक राष्ट्रों ने अपनी-अपनी राष्ट्रभाषा की घोषणा कर दी, किन्तु भारत के कर्णधार ‘सबको खुश करने’ की नीति पर चले तो उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दी की घोषणा करके उस पर अंग्रेजी की ऐसी तलवार लटका दी, जिसे हटाने में किसी सूरमा में ताकत शेष न रही। संविधान-निर्माण के समय हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित करवाने के लिए जिन असंख्य हिन्दी प्रेमियों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने प्रदर्शन किए, लाठियों का सामना किया, वे परतंत्रता-काल में हिन्दी के हिमायती कांग्रेसी नेताओं की राजनीति के चक्कर में फंस गए। जिसके परिणामस्वरूप हिन्दी के साथ अंग्रेजी के प्रयोग को सदैव के लिए प्रयोगशील बना दिया गया। संसद में भी हिन्दी के साथ  अंग्रेजी के प्रयोग को अनुमति मिल गई और कहा गया किजब तक भारत का एक भी राज्य हिन्दी का विरोध करेगा, हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर सिंहासनारूढ़ नहीं किया जाएगा।इसी की दुःखद परिणति है कि आज भी हमारी राष्ट्रभाषा  कबीरदास के दोहे, “चलती चाकी देखकर, दिया कबीरा रोय। दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।।“ जैसे हालातों से जूझते हुए राष्ट्रभाषा के पद पर सिंहासनारूढ़ होने की राह बाट रही है।
            यह निर्विवाद सत्य है कि हिन्दी की पहचान हिमगिरि से लेकर कन्याकुमारी तक व्याप्त है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी इसकी परम्परा अंततः पुष्ट और सुदीर्घ है। भक्तिकाल का सम्पूर्ण साहित्य भी हिन्दी भाषा में ही रचित है। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वतंत्रतता के 67 वर्ष बाद भी देश में हिन्दी पढ़ने, बोलने, समझने वालों की संख्या 75 प्रतिशत के लगभग होने के बावजूद भी उसे आज पर्यन्त राष्ट्रभाषा का उचित सम्मान और महत्व प्रदान करने में सफल नहीं हो पाये हैं। संविधान की धारा 351 के अंतर्गत भले ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया है, मगर सरकारी स्तर पर हिन्दी को राष्ट्रभाषा का महत्व अभी प्राप्त न हो सका। 
            आज अंग्रेजी मानसिकता हिन्दी-अभिरुचि का गला घोंट रही है। हिन्दी के पक्षपाती, उसके कर्णधार तथा उसके नाम पर व्यवसाय करने वाले, राजनीति की रोटियाँ  सेंकने वाले उसे गंगा में समाधिस्थ करने पर तुले हुए हैं। ऐसे में कच्छप गति से आगे बढ़ती हिन्दी के रथ को गति प्रदान करने के लिए चाणक्य चाहिए जो हिन्दी के विरुद्ध 'उत्तर-दक्षिण की बात खड़ी करके भारतीय समाज को विघटित'किए जाने वाले षड्यंत्रों का पर्दाफाश करके, हिन्दी विरोधी ‘फूट डालो, राज्य करो’ नीति को उजागर करके लोभ, लालच, ममता, स्वार्थ के कंटकों को हटाकर जन-मानस में हिन्दी संस्कार का अमृत पहुंचा सके।

हिन्दी दिवस की असीम शुभकामनाओं सहित।
.....कविता रावत 

स्वस्थ जीवन जीना एक कला है

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हमारे भारतीय चिन्तन में शरीर को धर्म का पहला साधन माना गया है। महाकवि कालिदास की सूक्ति "शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्" और इस हेतु सदैव स्वस्थ रहने को कर्तव्य निरूपित किया है।"धर्मार्थ काममोक्षाणाम् आरोग्यम् मूल मुत्तमम्।"इसीलिए अच्छा स्वास्थ्य महा-वरदान है। इसकी  रक्षा करना प्रत्येक मनुष्य का दायित्व है।  शरीर का स्वस्थ रहना परम आवश्यक है। यदि शरीर स्वस्थ नहीं हो, तो मन स्वस्थ नहीं रह सकता, मन स्वस्थ नहीं तो विचार स्वस्थ नहीं होते। उर्दू में एक सूक्ति है- 'तन्दुरूस्ती हजार न्यामत'अर्थात स्वास्थ्य हजार अन्य अच्छे भोगों से बढ़कर है। अंग्रेजी में भी कहावत है-  'Health is Wealth'अर्थात् स्वास्थ्य ही धन है। तुलसीदास जी ने इसे और सरल शब्दों में व्यक्त किया है- "बड़ भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा।"अर्थात् अर्थात् बड़े भाग से मनुष्य जीवन मिलता है, सभी ग्रंथ कहते हैं कि यह देवताओं को भी दुर्लभ है। इसीलिए योगेश्वर कृष्ण ने भी अपने प्रिय शिष्य उद्धव को शरीर के विषय में कहा कि मनुष्य शरीर दुर्लभ है तथा पुण्य कर्मों से प्राप्त होता है।  मनुष्य के रूप में जन्म लेना वास्तव में भाग्य की बात है। स्वस्थ जीवन शैली की कला और विज्ञान के साथ ही भारतीय दर्शन "परहित सरिस धर्म नहिं भाई"सार्थक जीवन का भी संदेश हमें देता है।           
          वास्तव में कला और विज्ञान परस्पर विरोधी नहीं हैं। कला विज्ञान को भी कलात्मक रूप दे सकती है, वहीं विज्ञान कला को तर्कों के आधार पर वैज्ञानिक रूप प्रदान कर सकता है। व्यवहार में कहा जाता है कि कुशल सर्जन कितने कलात्मक रूप से सर्जरी करते हैं, वहीं दूसरी ओर नाड़ी परीक्षा करके चिकित्सा करने के विषय को वैज्ञानिक रूप से कसौटी पर कसने का प्रयास करते हैं।  स्वस्थ जीवन शैली के मूल प्रतिपाद्य विषय पर विचार करें तो स्वस्थ रहने के लिए आयुर्वेद और योग के नियम तथा निर्देशों को व्यवहार में लाना एक कला है जो परिवार में संस्कारों के रूप में प्राप्त होती है और जो धीरे-धीरे व्यवहार में आकर जीवन शैली बन जाती है। जैसे कि सूर्योदय के पूर्व जागरण, स्नान-ध्यान, व्यायाम-योग, विश्राम, जल्दी सोना, मौसम के अनुसार आहार-विहार आदि-आदि। 
            आयुर्वेद और योग व्यक्तिगत के साथ सामाजिक, संवेदनात्मक, भावनात्मक तथा सुचितापूर्ण जीवन जीने के विचार भी प्रस्तुत करता है, जो कि स्वस्थ जीवन शैली के अभिन्न अंग हैं।  हमारे मनीषियों ने स्वस्थ जीवन जीने के लिए मात्र संहिता ग्रंथों या शास्त्रों की रचना ही नहीं की बल्कि व्रत, पर्व और त्यौहार आदि के माध्यम से स्वस्थ जीवन के सूत्रों को जन-जन में व्याप्त किया। उपवास, विशेष प्रसाद तथा व्रत, त्यौहार आदि के विशेष आहार की योजना व ऋतु एवं प्रकृति को ध्यान में रखकर की।
हमारे देश के बहुलतावादी समाज में स्वास्थ्य व्यवस्थायें भी बहुआयामी रही। विभिन्न लोक स्वास्थ्य परम्परायें देश के अलग-अलग हिस्सों में विकसित हुई। हड्डी बिठाने, दाई, जड़ी-बूटी के जानकार, वैदू, भोपा आदि। देशज ज्ञान की यह कला मात्र उपचार तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें स्वास्थ्य रक्षा के सूत्र भी निहित हैं। ये विभिन्न लोक परम्परायें मात्र घरेलू उपचार तक सीमित नहीं है, बल्कि इनके ज्ञान का आधार 75 प्रतिशत से अधिक आयुर्वेद के सिद्धांतों के अनुकूल है। 
           आयुर्वेद और योग के माध्यम से जो जीने की कला विकसित हुई, आधुनिक विज्ञान इसके वैज्ञानिक पक्ष को सामने लाने का प्रयास कर रहा है। उदाहरणार्थ- आयुर्वेद का मानना है कि भोजन में 50 प्रतिशत ठोस प्रतिशत तथा 25 प्रतिशत तरल पदार्थ रहें तथा शेष 25 प्रतिशत भाग वायु के आवागमन के लिए खाली रहे। विज्ञान भी इसका समर्थन करते हुए कहता है कि पेट भरने का संदेश दिमाग में पहुंचने में 20 मिनट लगते हैं। अतः भोजन के आखिरी दौर में पेट भरने के पहले ही हाथ खींच लें।  प्रातः जागरण के संस्कार को भी विज्ञान सही मानता है क्योंकि उस समय पिट्टूटरी ग्लैंड का स्त्राव अधिकतम् होता है। 
सम्पूर्ण विश्व में जापानी सबसे ज्यादा जीते हैं। उनमें रोगों का प्रतिशत भी तुलानात्मक रूप से कम हैं। उनके स्वस्थ व दीर्घायु जीवन पर अध्ययन करने पर जो सूत्र सामने आये हैं वे कोई रहस्यमय नहीं, बल्कि अत्यन्त सरल और व्यावहारिक हैं; जैसे कि-
  • भूख से 20 प्रतिशत कम खाते हैं। (हरा हची बू यानि पेट भर नहीं)
  •  सब्जी, दाल, फलों का सेवन ज्यादा करते हैं।
  • खाने की प्लेट छोटी रखते हैं।
  • भोजन के बाद मीठा नहीं बल्कि फल या ग्रीन टी लेते हैं।
  • खट्टे फर्मेन्टेड सब्जी का प्रयोग ज्यादा करते हैं क्योंकि इसमें पाचन अच्छा रखने वाले गुड लेक्टिक एसिट  बैक्टीरिया की अधिकता होती है।
  • सूक्ष्म व्यायाम की विधा ‘ताई ची’ नियमित रूप से करते हैं।
  •  ज्यादा पैदल चलना, साइकिल का उपयोग ज्यादा तथा कार की बजाय सार्वजनिक वाहन का उपयोग ज्यादा करते हैं।
  • संयुक्त परिवार को महत्व देते हैं। परस्पर मिलना-जुलना, सामाजिकता पर बल देते हैं।
            यही कारण है कि जापानियों की जीवन प्रत्याक्षा (Life Expentence)  82.5 वर्ष है, जो विश्व में सबसे ज्यादा है, जबकि भारत में 65 है। जापानी सिर्फ लम्बी उम्र ही नहीं जीते, बल्कि उनमें हृदय रोग, मोटापा, डायबिटीज जैसे विकृत जीवन शैली जनित रोगों का प्रतिशत भी काफी कम है।
            उपरोक्त सभी सूत्र भारतीय संस्कृति में पूर्व से विद्यमान है, लेकिन उनके प्रति उदासीनता के कारण जीवन शैली में बदलाव स्पष्ट देखा जा सकता है।  अब प्रश्न यह उठता है कि स्वस्थ जीवन शैली की ये कलात्मक जीवन सूत्र हमारे देश में मौजूद हैं, फिर भी हमारे यहाँ स्वास्थ्य की स्थिति चिन्ताजनक क्यों है?  इसका कारण यह है कि कला के साथ विज्ञान का समन्वय नहीं हो पाना। आज स्वस्थ जीवन के सूत्रों के वैज्ञानिक पक्ष को खुले दिमाग से सामने लाना होगा। 
            विवाह, गर्भाधान, बाल-किशोर, प्रौढ़ावस्था अर्थात् जीवन के प्रत्येक चरण को स्वस्थ रखने के लिए स्वस्थ जीवन शैली के सूत्र भारतीय चिन्तन में निहित हैं। ऐसे सूत्रों के कलात्मक और वैज्ञानिक पक्ष को चिन्तकों, अनुभवी विद्वानों, विषय विशेषज्ञों द्वारा व्यवहार में लाने हेतु संयुक्त प्रयास करने होंगे।

डाॅ. मधुसूदन देशपांडे, आयुर्वेद चिकित्सक, ओजस पंचकर्म सेंटर भोपाल के सहयोग से.......
....कविता रावत

गाँंधी जयंती और स्वच्छता अभियान

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गांधी जयंती गांधी जी को स्मरण करने का पुण्य दिन है। 2 अक्टूबर 1869 को गांधी जी के जन्म हुआ था। इसलिए कृतज्ञ राष्ट्र उनके जन्म दिवस को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाकर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है। अर्चना के अगणित स्वर मिलकर इस युग के सर्वश्रेष्ठ महामानव की वंदना करता है।  इस दिन स्थान-स्थान पर गांधी जी के जीवन की झांकियां दिखाई जाती है, उनके जीवन की विशिष्ट घटनाओं के चित्र लगाए जाते हैं। गांधी जी पर प्रवचन और भाषण होते है। मुख्य समारोह दिल्ली के राजघाट पर होता है। राष्ट्र के कर्णधार मुख्यतः राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री और नेतागण तथा श्रद्धालु-जन गांधी जी के समाधि पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। प्रार्थना-सभा में राम धुन और गांधी जी के प्रिय भजनों का गान होता है। विभिन्न धर्मो के पुजारी प्रार्थना के साथ अपने-अपने धर्म-ग्रंथों से पाठ करते हैं। श्रद्धा-सुमन चढ़ाने और भजन-गान का कार्यक्रम ‘बिड़ला हाउस’ में भी होता है, जहां गांधी जी शहीद हुए थे।
भारत सरकार द्वारा गांधी जयंती के अवसर पर राष्ट्रीय स्वच्छता जागरूकता अभियान चलाये जाने की घोषणा स्वागतयोग्य है। प्रधानमंत्री मोदी जी 2 अक्टूबर को एक बुकलेट जारी कर ‘स्वच्छ भारत मिशन’ लाँच करते हुए स्वयं इसकी शुरूआत कर लोगों को जागरूक करेंगे। समस्त देशवासी इस अभियान से जुड़कर इसे सफल बनायें इसके लिए ‘स्वच्छता शपथ’ कुछ इस प्रकार होगा-
  • महात्मा गाँधी ने जिस भारत का सपना देखा था, उसमें सिर्फ राजनैतिक आजादी ही नहीं थी, बल्कि एक स्वच्छ एवं विकसित देश की कल्पना भी थी।
  • महात्मा गांधी ने गुलामी की जंजीरों को तोड़कर माँ भारती को आजाद कराया। अब हमारा कर्तव्य  है कि गन्दगी को दूर करके भारत माता की सेवा करें।
  • मैं शपथ लेता/लेती हूँ कि मैं स्वयं स्वच्छता के प्रति सजग रहूंगा/रहूंगी और उसके लिए समय दूँगा/दूँगी।
  • हर वर्ष 100 घंटे यानी हर सप्ताह 2 घंटे श्रमदान करके स्वच्छता के इस संकल्प को चरितार्थ करूंगा/करूंगी।
  • मैं न गंदगी करूँगा न किसी और को करने दूंगा/दूंगी।
  • सबसे पहले मैं स्वयं से, मेरे परिवार से, मेरे मोहल्ले से, मेरे गांव से एवं मेरे कार्यस्थल से शुरूआत करूंगा/करूंगी।
  • मैं यह मानता/मानती हूं कि दुनिया के जो भी देश स्वच्छ दिखते हैं उसका कारण वहां के नागरिक गंदगी नहीं करते और न ही होने देते हैं।
  • इस विचार के साथ मैं गाँव हो या शहर गली-गली स्वच्छ भारत मिशन का प्रचार करूंगा/करूंगी।
  • मैं आज जो शपथ ले रहा हूँ वह अन्य 100 व्यक्तियों से भी करवाऊँगा/करवाऊँगी।
  • वे भी मेरी तरह स्वच्छता के लिए 100 घंटे दें, इसके लिए प्रयास करूंगा/करूगी।
  • मुझे मालूम है कि स्वच्छता की तरफ बढ़ाया गया मेरा एक कदम पूरे भारत देश को स्वच्छ बनाने में मदद करेगा।
            हम सभी भलीभांति जानते हैं कि यह अभियान तभी सफल हो सकेगा जब सभी भारतवासी सच्चे मन से गांधी जी के विचारों और उनकी कार्यप्रणाली को आत्मसात करेंगे। क्योंकि हमारे देश की बिडम्बना है कि हम स्वयं गांधी जी की तरह सोच नहीं बना पाते। काम को छोटा-बड़ा समझकर उसको सोचने-विचारने में ही अधिकाशं समय बर्बाद कर देते हैं। 'यह मेरा काम नहीं है, उसका काम है'जैसी धारणा का हमारे मन में गहरी पैठ है। जबकि बापू यह मानते थे कि अपनी सेवा किये बिना कोई दूसरों की सेवा नहीं कर सकता है। दूसरों की सेवा किये बिना जो अपनी ही सेवा करने के इरादे से कोई काम शुरू करता है, वह अपनी और संसार की हानि करता है। वे खुद कैसे दूसरों के लिए प्रेरणा बन जाते थे, इस पर एक प्रेरक प्रसंग देखिए- मगनवाड़ी आश्रम में सभी को अपने हिस्से का आटा पीसना पड़ता था। एक बार आटा समाप्त हो गया। आश्रमवासी रसोईया सोचने लगा कि अब क्या किया जाय? यदि वह चाहता तो स्वयं भी पीसकर उस दिन का काम चला सकता था, लेकिन चिढ़कर उसने ऐसा नहीं किया। वह सीधे गांधी जी के पास गया और बोला ‘आज रसोईघर में रोटी बनाने के न आटा है न कोई पीसने वाला है। अब आप ही बताएं, क्या करूं? गांधी जी ने शांत भाव से कहा- ‘इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं है। चलो, मैं चलकर पीस देता हूँ।’ बापू अपना काम छोड़कर गेंहूँ  पीसने बैठ गए। जब रसोईया ने गांधी जी को चक्की चलाते देखा तो उसे बड़ी आत्मग्लानि हुई। उसने गांधी जी से कहा कि ‘बापू आप जाइये, मैं खुद ही पीस लूंगा।’ इसका गहरा प्रभाव केवल रसोईया पर ही नहीं बल्कि सभी व्यक्तियों पर पड़ा।   
आइए, स्वच्छता अभियान से जुड़कर ‘स्वच्छता शपथ’ में उल्लेखित बिन्दुओं पर आज ही अमल करते हुए देश को स्वच्छ बनाने की दिशा में अपना अमूल्य योगदान देने के लिए आगे आयें और भारत को स्वच्छ बनायें।

....कविता रावत

रामलीला में रावण

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आसुरी शक्ति पर दैवी-शक्ति की विजय का प्रतीक शक्ति की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा के नवस्वरूपों की नवरात्र के पश्चात् आश्विन शुक्ल दशमी को इसका समापन ‘मधुरेण समापयेत’ के कारण ‘दशहरा’ नाम से प्रसिद्ध है। एक ओर जहाँ नवरात्र पूजा-पाठ का पर्व है, जिसमें की गई पूजा मानव मन को पवित्र तथा भगवती माँ के चरणों में लीन कर जीवन में सुख-शांति और ऐश्वर्य की समृद्धि करती है तो दूसरी ओर विजयादशमी धार्मिक दृष्टि से आत्मशुद्धि का पर्व है, जिसमें पूजा, अर्चना और तपोमय जीवन-साधना के साथ-साथ शक्ति के प्रतीक शस्त्रों का शास्त्रीय विधि से पूजन इसके अंग माने गए हैं। यह हमारी  राष्ट्रीय शक्ति संवर्धन का दिन होने से राष्ट्रीय त्यौहार भी है। पर्व और त्यौहार हमारी भारतीय सांस्कृतिक एकता की आधारशिला होकर एकात्म दर्शन के साक्षी हैं। होली का हुडदंग, रक्षाबंधन की राखी, दशहरा का उल्लास तथा दीपावली व नवरात्र पूजन, रामनवमी और कृष्ण जन्माष्टमी मनाने के लिए लोग स्वप्रेरित होते हैं।  
        दशहरा असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। रावण के बिना दशहरा अधूरा है। बचपन में जब नवरात्रों में रामलीला का मंचन होता तो उसे देखने के लिए हम बच्चे बड़े उत्साहित रहते। पूरे 11 दिन तक आस-पास जहां भी रामलीला होती, हम जैसे-तैसे पहुंच जाते। किसी दिन भले ही नींद आ गई होगी लेकिन जिस दिन रावण का प्रसंग होता उस दिन उत्सुकतावश आंखों ने नींद उड़ जाती। पहले दिन मंच पर रावण अपने भाईयो कुंभकरण व विभीषण के साथ एक टांग पर खड़े होकर घनघोर ब्रह्मा जी की तपस्या करता नजर आता तो हम रोमांचित हो उठते। तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी उनसे वर मांगने को कहते तो वह भारी-भरकम आवाज में यह वरदान मांगते कि- 'देव-दनुज, किन्नर और नारी, जीतहूँ सबको सकल जग जानी।"कुंभकरण का विशाल शरीर देखकर ब्रह्मा जी उसे भ्रमित कर देते हैं तो वह "सुनहुं नाथ यह विनती हमारी, मो को है अति निद्रा प्यारी।" कहकर छः माह सोने व एक दिन जागने का वरदान मांग बैठता। अंत में विभीषण ब्रह्मा जी से प्रभु के चरणों में भक्ति के साथ जनकल्याण का वरदान इस तरह मांगते कि, "जो प्रभु प्रसन्न मोहि पर, दीजो यह वरदान, जनम-जनम हरि भक्ति में सदा रहे मम ध्यान।"भगवान ब्रह्मा जी ‘तथास्तु’  कहकर अंतर्ध्यान होते तो दृश्य का पटाक्षेप हो जाता। 
         अगले दृश्य में रावण वरदान पाकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन कैलाश पर्वत पर करता दिखाई देता। कैलाश पर्वत पर शिवजी और पार्वती जी विराजमान रहते, उसे एक हाथ से उठाते हुए कहता-  "देखो ऐ लोगो तुम मेरे बल को, कैलाश परबत उठा रहा हूँ। सब देखें कौतुक नर और नारी, नर और नारी; कैलाश परबत उठा रहा हूँ।" और जैसे ही वह कैलाश पर्वत को उठाने के लिए जोर लगता है तो पार्वती डर जाती कि यह क्या हो रहा है तो शिवजी उन्हें समझाते कि यह सब रावण का काम है जो वरदान पाकर उदण्ड हो गया है और इसी के साथ वे अपनी त्रिशुल उठाकर गाड़ देते जिससे रावण बहुत देर तक   "त्राहि माम्, त्राहि माम्"का करुण क्रंदन करने लगता जिसे सुन माता पार्वती भगवान शिव से उसे क्षमा कर देने को कहती। भोले शंकर अपना त्रिशूल उठाते तो वह छूटकर भाग खड़ा होता।
            मंचन के अगले दृश्य के लिए जैसे ही सींटी बजती और पर्दा खुलता तो वहाँ अलग-अलग शक्ल-सूरत वाले राक्षस धमाल मचाते नजर आते, जिनकी उटपटांग बातें सुनकर कभी हँसी आती तो कभी-कभी डर भी लगता। इसी बीच जैसे ही रावण तेजी से मंच पर आकर इधर से उधर चहलकदमी कर गरज-बरसकर दहाड़ता कि-"ऐ मेरे सूरवीर सरदारो! तुम बंद कंदराओं में जाकर ऋषि-मुनियों को तंग करो। उनके यज्ञ में विध्न-बाधा डालो। यज्ञहीन होने से सब देवता बलहीन हो जायेंगे और हमारी शरण में आयेंगे। तब तुम सम्पूर्ण ब्रह्मांड का सुख भोगोगे।"तो राक्षसों के साथ हमारी भी सिट्टी-पिट्टी गोल हो जाती। राक्षसों का अभिनय देखते ही बनता वे ’जी महाराज’ ‘जी महाराज’ की रट लगाकर उसके आगे-पीछे इधर से उधर छुपते फिरते।
           रावण का अगला लघु दृश्य सीता स्वयंवर में  देखने को मिलता, जहांँ वह धनुष उठाने के लिए जैसे ही तैयार होता है तो बाणासुर आकर उसे टोकते हुए समझाईश देता कि-"न कर रावण गुमान इतना, चढ़े न तुमसे धनुष भारी, मगर धनुष को प्रभु वह तोड़े जिन्होंने गौतम की नारी तारी।"जिसे सुन रावण क्रोधित होकर उसे याद दिलाते हुए मूर्ख ठहराते हुए कहता- "चुप बैठ रह वो बाणासुर, इस दुनिया में बलवान नहीं, मैंने कैलाश पर्वत उठाया था, क्या मूर्ख तुझे याद नहीं?"इसी के साथ जब वह धनुष उठाने के लिए जैसे ही झुकता तो एक आकाशवाणी होती कि उसकी बहन को कोई राक्षस उठा ले जा रहा है। जिसे सुन वह यह कहते हुए कि "अभी तो वह जा रहा है ,लेकिन एक दिन वह सीता को अपनी पटरानी जरूर बनायेगा।"तेजी से भाग जाता।  
 इसी तरह मारीच प्रसंग के बाद सीताहरण और फिर आखिर में युद्ध की तैयारी और फिर 11वें दिन राम-रावण युद्ध के दृश्य में रावण के  मारे जाने के बाद भी हमारी आपस में बहुत सी चर्चायें कभी खत्म होने का नाम नहीं लेती। स्कूल की किताब में लिखा हमें याद न हो पाये लेकिन रामलीला में किसकी क्या भूमिका रही, किसने क्या-क्या और किस ढंग से कहा इस पर आपसी संवाद स्कूल जाने और वापस घर पहुंँचने तक निरंतर चलता रहता।         
 आज जब भी दशहरा मैदान में रावण का दहन होता है तो उसके दस मुखों पर ध्यान केन्द्रित होता है। मेरी तरह आपका भी ध्यान  इस ओर जरूर जाता होगा कि क्या कभी दशानन रावण ने अपने दस मुखों से बोला होगा? इस संबंध में कहते हैं कि रावण को श्राप था कि जिस दिन वह अपने दस मुखों से एक साथ बोलेगा, उसी दिन उसकी मृत्यु सन्निकट होगी और वह बच नहीं पायेगा। इसीलिए वह बहुत सचेत रहता था। लेकिन कहा जाता है कि जब भगवान राम द्वारा समुद्र पर पुल बांध लेने का समाचार उसके दूतों ने उसे सुनाया तो वह जिस समुद्र को कभी नहीं बांध सका, इस कल्पनातीत कार्य के हो जाने पर विवेकशून्य होकर एक साथ अपने दस मुखों से समुद्र के दस नाम लेकर बोल उठा- 
बांध्यो बननिधि नीरनिधि, जलधि सिंघु बारीस।
सत्य तोयनिधि कंपति, उदति पयोधि नदीस।। 
………फिलहाल इतना ही .............

सबको दशहरा की हार्दिक शुभकामनाऐं।
.......कविता रावत

दाढ़ी बढ़ा लेने पर सभी साधु नहीं बन जाते हैं

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गुलाब को कुछ भी नाम दो उससे उतनी ही सुगंध आयेगी।
शक्कर सफेद हो या भूरी उसमें उतनी ही मिठास रहेगी।।

कभी चित्रित फूलों से सुगंध नहीं आती है।
हर चमकदार वस्तु स्वर्ण नहीं होती है।।

धूप में धूल के कण भी चमकदार मालूम पड़ते हैं।
हाथी के खाने और दिखाने के अलग दाँत होते हैं।।

सुन्दर सेब के भीतर कीड़ा लगा तो वह किसी काम नहीं आता है।
बन्दर को शाही पोशाक पहना देने पर वह बंदर ही कहलाता है।।

किसी पेड़ को उसकी छाल से नहीं जाँचना चाहिए।
सिर्फ चेहरा देख उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए।।

जंग में जाने वाले सब लोग सैनिक नहीं होते हैं।
दाढ़ी बढ़ा लेने पर सभी साधु नहीं बन जाते हैं।।
      
  ...  कविता रावत 

दीप पर्वोत्सव

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कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी को धनतेरस से शुरू होकर भाई दूज तक मनाया जाने वाला पांच दिवसीय सुख, समृद्धि का खुशियों भरा दीपपर्व ’तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् 'अंधेरे से प्रकाश की ओर चलो'का संदेश लेकर आता है। अंधकार पर प्रकाश का विजय का यह पर्व समाज में उल्लास, भाईचारे व प्रेमभाव का संदेश फैलाता है। त्यौहार, पर्वादि हमारी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग हैं, जिनके बिना हमारे भारतीय जनमानस की खुशियाँ अधूरी व जिन्दगी बेरौनक है। त्यौहार हो या कोई भी पर्व ये सिर्फ ईश्वरीय पूजा या जमाने के साथ चलने का माध्यम मात्र नहीं है, अपितु इनके मूल में ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःख भागभवेत, के साथ ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना निहित है।
धनतेरस: दीपावली के दो दिन पहले धनतेरस मनाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन भगवान धन्वन्तरि समुद्र में से अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे, अतः इस दिन आरोग्य एवं दीर्घायु की कामना के लिए इनकी पूजा की जाती है। धनतेरस के दिन बाजारों में बड़ी रौनक रहती है। इस दिन बरतन खरीदना सबसे शुभ माना जाता है। प्रत्येक परिवार अपनी-अपनी आवश्यकता और सामथ्र्य अनुसार बरतन खरीदता है। इसी दिन सायंकाल प्रदोष काल में आटे का दीपक बनाकर घर के बाहर तुलसी या मुख्यद्वार पर एक पात्र में अनाज रखकर आयु की रक्षा के लिए वैदिक देवता यमराज के निमित्त दक्षिण की ओर मुह करके ‘मृत्युना पाश्हस्तेन कालेन भार्यया सह। त्रयोदश्यां दीपदानात्सूर्यजः प्रीतयामिति’ मंत्र का उच्चारण कर दीपदान किए जाने का विधान है।
नरक चतुर्दशी: नरक चतुर्दशी को रूप चतुर्दशी और छोटी दीपावली के नाम से भी मनाया जाता है। माना जाता है कि इस दिन भगवान श्रीकृष्ण से देव तथा मानवों को यातना देने वाले दैत्य नरकासुर का वध कर उसके बंदीगृह की 16 सहस्त्र राजकन्याओं को मुक्त किया। अतः यह पर्व दुष्ट लोगों से रक्षा तथा उनके संहार के उद्देश्य से मनाया जाता है। इस दिन श्रीकृष्ण की पूजा कर इसे रूप चतुर्दशी के रूप में मनाया जाता है।  मान्यता है कि इस दिन पितृश्वरों का आगमन हमारे घरों में होता है, अतः उनकी आत्मा की शांति के लिए यमराज के निमित्त घर के बाहर तेल का चैमुख दीपक और सोलह छोटे दीए जलाकर अपने ईष्ट देव की पूजा की जाती है।
दीपावली:धनतेरस और नरक चतुर्दशी के बाद दीपावली आती है। दीपावली को मनाने का सबसे प्रचलित जनश्रुति भगवान श्रीराम से जुड़ी है, जिसमें माना जाता है कि भगवान श्रीराम जब लंका विजय के बाद माता सीता सहित अयोध्या लोटे तो अयोध्यावासियों ने उनके स्वागत के लिए अपने-अपने घरों की साफ-सफाई कर अमावस्या की रात्रि में दीपों की पंक्ति जलाकर उसे पूर्णिमा बना दिया। इसलिए यह परम्परा दीपों के पर्व के रूप में मनाया जाने लगा। इस दिन घरों में सुबह से ही तरह-तरह के पाकवान बनाये जाते हैं। बाजार तरह-तरह की मिठाईयों, खील-बताशे, खांड के खिलौने, लक्ष्मी गणेश आदि की मूर्तियों से सजे नजर आते हें। जगह-जगह आतिशबाजी और पटाखों की दुकाने सज जाती हैं।
रात्रि को सभी लोग घरों की साफ-सफाई और साज-सज्जा में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहते क्योंकि मान्यता है कि दीपावली कीरात लक्ष्मी जी सर्वत्र विचरण करते हुए अपने स्वयं के निवास योग्य स्थान ढूंढ़ती है, ऐसा स्थान जहाँ अंधेरा और अंधेरे की ही भांति गंदा न दिखाई दे। वह केवल बाह्य स्वच्छता ही नहीं अपितु पूरे परिवार के अंतःकरण की पवित्रता एवं शुचिता पर ध्यान देती है। इस संबंध में पुराणों के माध्यम से में लक्ष्मी जी का संदेश दिया गया है कि “वसामि नित्यं सुभगे प्रगल्भे दक्षे नरे कर्मणि वर्तमाने। अक्रोधने देवपरे कृतज्ञे जितेन्द्रिये नित्यमुदीर्णसत्तवे।। स्वधर्मशीलेषु च धर्मवित्सु वृद्वोपसेवानिरते च दान्ते। कृतात्मनि क्षान्तिपरे समर्थे क्षान्तासु दान्तासु तथाऽबलासु।।“
गोवर्धन पूजा:  दीपावली के अगले दिन गोवर्धन पूजा की जाती है। मान्यता है कि इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने इन्द्र के कोप से डूबते ब्रजवासियों को बचाने के लिए गोवर्धन की पूजा कर अपने अंगुली उठाया। यह कृषक वर्ग के लिए विशेष पर्व है। इस दिन लोग अपने गाय-बैलों को सजाकर तथा गोबर का पर्वत बनाकर ’ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय“ मंत्र का जाप कर पूजा करते हैं। मान्यता है कि इस दिन गौमाता की पूजा करने से सभी पा उतर जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
भाई दूज: गोवर्धन पूजा के अगले दिन बहने अपने भाई के माथे पर तिलक लगाकर उसके दीर्घायु की कामना के लिए हाथ जोड़कर यमराज से प्रार्थना करती हैं।  भैयादूज भाई-बहन के प्रेम के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। भाई दूज को यम द्वितीया भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसी दिन मत्यु के देवता यम की बहन यमी (सूर्य पुत्री यमुना) ने अपने भाई यमराज को तिलक लगाकर भोजन कराया था तथा भगवान से प्रार्थना की थी कि उसका भाई सकुशल रहे। इसलिए इसे यम द्वितीया कहते हैं।  
दीपावली में साफ-सफाई का विशेष महत्व है। क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध हमारे शरीर को आरोग्य बनाए रखने से जुड़ा होता है। शरीर को सत्कर्म का सबसे पहला साधन माना गया है (शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्) और यह तभी सम्भव हो सकता है जब हम स्वस्थ रहेंगे। क्योंकि पूर्ण स्वास्थ्य संपदा से बढ़कर है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है। इसके लिए जरूरी है वर्षा ऋतु समाप्त होने पर घरों में छिपे मच्छरों, खटमलों, पिस्सुओं और अन्य दूसरे विषैले कीटाओं को मार-भगाने का यचोचित उपचार जिससे मलेरिया, टाइफाइड जैसी घातक बीमारियों को फलने-फलने को अवसर न मिले। सभी लोग अपनी सामर्थ्य के अनुसार घरों की लिपाई-पुताई, रंग-रोगन कर घर की गन्दगी दूर करने के साथ ही आस-पड़ोस की भी साफ़- सफाई का पर विशेष  ध्यान रखकर खुशियों की दीप जलाएं, यही शुभ कामना है।

दीपावली की हार्दिक शुभकामनाओं सहित ........कविता रावत



लौह पुरुष जन्मदिवस बनाम राष्ट्रीय एकता दिवस

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31 अक्टूबर 1875 ईं. को गुजरात के खेड़ा जिला के करमसद गांव में हमारे स्वतंत्रता-संग्राम के वीर सेना नायक सरदार वल्लभभाई पटेल का जन्म हुआ। इसी दिन पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि भी है, जिसे अभी तक तुलनात्मक रूप से बड़ा महत्व दिया जाता रहा है। लेकिन इस बार मोदी सरकार ने लौह पुरुष  सरदार वल्लभभाई पटेल के जन्मदिवस को राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में मनाने की अपील की है, जिसके तहत् देश भर में विभिन्न आयोजन किये जायेंगे। दिल्ली में पटेल चौक स्थित सरदार पटेल की प्रतिमा पर माल्यार्पण के साथ ही स्वयं प्रधानमंत्री मोदी विजय चैक से इंडिया गेट तक एकता दौड़ में शामिल होकर कार्यक्रम का शुभारम्भ करेंगे। इस अवसर पर दूरदर्शन द्वारा भी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और आजादी के बाद पटेल के भाषणों को दिखाये जाने के साथ ही पूरे दिन कार्यक्रम प्रसारित किये जायेंगे। यह  निश्चित ही एक सराहनीय व उल्लेखनीय पहल है।
          सरदार वल्लभभाई पटेल फौजदारी के प्रसिद्ध वकील थे, जिससे उनकी खूब आमदनी थी। वे चाहते तो आराम की जिंदगी बिता सकते थे, लेकिन देश की सेवा उनके जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य था। सार्वजनिक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने के कारण उन्हें यह समझते देर न लगी कि वकालत करके धन कमाने का जीवन और देश सेवा का जीवन साथ-साथ नहीं चल सकता। इसलिए वे वकालत को ठोकर मारकर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। उन्होंने 1916 से 1945 ई. तक के प्रत्येक आंदोलन में सक्रिय भाग लिया, जिससे वे शीघ्र ही देश के राष्ट्रीय नेताओं में गिने जाने लगे। बारडोल आंदोलन, खेड़ा सत्याग्रह, दाण्डी यात्रा, सविनय अवज्ञा आंदोलन, व्यक्तिगत सत्याग्रह और अंत में भारत छोड़ो राष्ट्रीय संघर्ष में सरदार वल्लभभाई पटेल अग्रणी पंक्ति में रहे।
          यह हम सभी जानते हैं कि भारत सन् 1947 ईं को स्वतंत्र हुआ। लेकिन इसके साथ ही अंग्रेज जाते-जाते जिस तरह से लगभग 600 देशी रियासतों को आजाद बने रहने की छूट दे गये, यदि समय रहते सरदार वल्लभभाई पटेल ने उन्हें एक सूत्र में अपनी सूझ-बूझ से संगठित न किया होता तो आज देश एक राष्ट्र के रूप में नहीं अपितु खण्ड-खण्ड रूप में बिखरा मिलता। जिस तरह जर्मनी के एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के कारण ओटो वान बिस्मार्क ‘आयरन चांसलर’ नाम से प्रसिद्ध हुए उसी तरह देशी राज्यों को स्वतंत्र भारत में मिलाने के अपने महान कार्य के लिए सरदार वल्लभभाई पटेल लौह पुरुष नाम से विश्वविख्यात हैं।  
          सरदार वल्लभभाई पटेल के स्वभाव में असाधारण दृढ़ता थी। वे जो एक बार निश्चय कर लेते, उसे पूरा करके ही छोड़ते थे। गुजरात के बारडोली क्षेत्र में बिना कारण जब किसानों के ऊपर लगान की दर बढ़ा दी गई तो उन्होंने किसानों के साथ जन आन्दोलन किया। उन्होंने अपनी दृढ़ निश्चयी व ओजस्वी वाणी में किसानों को संबोधित करते हुए कहा- "आप तो किसान हैं, किसान कभी दूसरे की ओर हाथ नहीं पसारता। आप सब काम करने वाले हैं, फिर डर किसका? आप किसी से न डरे। न्याय और प्रतिष्ठा के लिए बराबर लडि़ए। आवश्यकता पड़े तो सारे देश के किसानों के लिए लड़कर दिखा दीजिए। देश के लिए अपने को मिटाकर संसार में अपनी अमर कीर्ति फैला दीजिए। पटेल की इसी ललकार के परिणामस्वरूप सरकार को घुटने टेकने पड़े और समझौता करने के लिए बाध्य होना पड़ा। इस आंदोलन के मुख्य सूत्रधार होने से वे  सरदार उपाधि से जनप्रिय हुए।
          देश स्वतंत्र हुआ पर साथ ही विभाजित भी हो गया। ऐसे समय में शांति स्थापित करने और लाखों विस्थापितों को बसाने की और देशी राज्यों को देश की मुख्य धारा में मिलाने की समस्या भारत के प्रथम गृहमंत्री के रूप में सरदार पटेल के सामने आयी तो वे न हतप्रभ हुए नहीं विचलित। बड़ी दृढ़ता और सूझ-बूझ से उन्होंनें शीघ्र ही समस्याओं पर विजय प्राप्त की। 15 दिसम्बर, 1950 को उनके निधन पर पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा-"इतिहास उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता और भारत का एकीकरण करने वाले के रूप में याद करेगा। स्वतंत्रता-युद्ध के वे एक महान सेनापति थे। वे ऐसे मित्र, सहयोगी और साथी थे, जिनके ऊपर निर्विवाद रूप से भरोसा किया जा सकता था"
          ...कविता रावत

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