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गाय भारतीय जीवन का अभिन्न अंग है

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हिन्दू साहित्य में गाय-प्राचीनकाल से ही भारत के जनमानस में गाय के प्रति सर्वोच्च श्रद्धा भाव रहा है। उसे राष्ट्र की महान धरोहर, लौकिक जीवन का आधार तथा मुक्ति मार्ग की सहयोगिनी माना गया है। ऋग्वेद में गाय को समस्त संसार की माता कहा गया है। अथर्ववेद में कहा गया है कि हम परस्पर वैसे ही प्रेम करें जैसे गाय बछड़े से करती है। अथर्ववेद में गाय के शरीर में समस्त देवताओं का वास माना गया है तथा उसके विभिन्न अंगों में उसके वास को दर्शाया गया है। अनेक विद्वानों का मत है कि प्रत्येक व्यक्ति तथा देवता का अपना स्वर्णिम प्रभामंडल होता है, जो गाय के दर्शन करने अथवा गाय का दूध पीने से दोगुना तक हो जाता है।
मनुष्य के पारलौकिक जीवन में गाय की महिमा की सर्वत्र चर्चा की गई है। जन्म, विवाह तथा मृत्यु पर गोदान को सर्वोच्च माना गया है। गौ-ग्रास देना, गौशाला को दान देने की बात को बार-बार दोहराया गया है।
लौकिक जीवन का आधार है गाय - गाय भारतीय जीवन का एक अभिन्न अंग है। भारतीयों के चहुंमुखी विकास का आधार गौपालन, गौरक्षा तथा गौसेवा रहा है। कृषि प्रधान देश होने से आज भी यह विश्व की क्षुधा शांत कर सकता है। यह दूसरी बात है कि रासायनिक उर्वरक, खाद तथा कीटनाशकों ने भारत भूमि की उर्वरता को धीरे-धीरे नष्ट कर दिया है या कम कर दिया है। बावजूद इसके आज भी विश्व के अनेक देशों की तुलना में भारत की भूमि कम होने पर भी उसकी उर्वरता अधिक है।
         गाय एक चलता फिरता चिकित्सालय है- प्रसिद्ध गौभक्त लाला हरदेव सहायक ने कहा था, ’गाय मरी तो बचता कौन, गाय बची तो मरता कौन?’ शास्त्रों में गाय के दूध को अमृत तुल्य बताया गया है, जो सभी प्रकार के विकारों, व्याधियों को नष्ट करता है। गाय के मूत्र में नाइटेªक्स, सल्फर, अमोनिया गैस, तांबा, लोहा जैसे तत्व होते हैं। गाय आयु प्रदान करती है इसीलिए कहावत है, ’गाय का दूध पीओ, सौ साल जिओ।’ गौमूत्र से अनेक भयानक रोगों, जैसे- कैंसर, हृदय रोग व चर्म रोग आदि के सफल इलाज हुए हैं। पंचगव्य अर्थात् गाय का दूध, दही, घी, गौमूत्र और गोबर-चिकित्सा पद्धति के लिए अत्यन्त उपयोगी माना गया है। इस संदर्भ में गौविज्ञान अनुसंधान केन्द्र, देवलापुर (नागपुर) ने अनेक प्रकार के अनुसंधान एवं सफल परीक्षण के द्वारा देश का मार्गदर्शन किया है।
           विश्व में जहां कहीं भी भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार हुआ अथवा जो भी देश हिन्दुत्व से प्रभावित हुए उन्होंने गाय का महत्व समझा। जरथु्रस्त के विचार में ‘ग्यूसू उर्व’ शब्द गाय की महत्ता के लिए प्रयुक्त हुआ है तथा गाय को पृथ्वी की आत्मा कहा गया। अहुता बैंती गाथा में जरथु्रस्त ने गाय पर अत्याचार की आलोचना की है। अहुर मजदा में गौ की रक्षा की बात कही गई है। अवेस्ता के वेंदीदाद अध्याय में गौमूत्र में किसी तत्व को शुद्ध करने की शक्ति बतलायी गई है। आज भी चीन में गौमांस भक्षण को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना जाता है। इसी भांति प्राचीन मिश्र अथवा यूनान में गाय को महत्व दिया जाता था।
          गौरक्षा देश की रक्षा है- भारत में प्राचीनकाल से ही गौरक्षा और गौसेवा को बहुत महत्व दिया गया है। महाराजा रघु, भगवान श्रीकृष्ण, छत्रपति शिवाजी ने गौरक्षा को अपने शासन का मुख्य अंग माना। 1857 के महासमर का एक प्रमुख मुद्दा गाय की चर्बी का नई राइफल की गोलियों में प्रयोग ही था। बहादुरशाह जफर ने भी तीन बार गौहत्या पर प्रतिबंध की घोषणा कर हिन्दू समाज की सहानुभूति प्राप्त करने का प्रयास किया था। कूका आंदोलन का केन्द्रबिन्दु गौरक्षा ही था। इस संदर्भ में महात्मा गांधी का कथन महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा था, ’मैं गाय की पूजा करता हूँ। यदि समस्त संसार इसकी पूजा का विरोध करे तो भी मैं गाय को पूजूंगा..... गाय जन्म देने वाली मां से भी बड़ी है। हमारा मानना है कि वह लाखों व्यक्तियों की मां है।’ उन्होंने यह भी कहा, ’गौवध बंद न होने पर स्वराज्य का महत्व नहीं रहता, जिस दिन भारत स्वतंत्र होगा, सब बूचड़खाने बंद कर दिये जाएंगे।’
          भारत में गौहत्या - भारत में विधिवत बूचड़खाने खोलकर गौहत्या हत्या का क्रम 1760 ईं. में क्लाइव के शासनकाल में हुआ। 1760 ईं. में पहला बूचड़खाना खुला, जिसमें कई हजार गायें नित्य काटी जाने लगीं। 1910 ईं. में देश में बूचड़खाने बढ़कर 350 हो गये। 1947 में स्वतंत्रता के बाद इनकी संख्या बढ़कर वैध-अवैध कुल मिलाकर 36,000 हो गई। एक अनुमान के अनुसार नित्य लगभग एक लाख गौधन काटा जा रहा है। दुर्भाग्य से गाय के मांस का भारी मात्रा में निर्यात आर्थिक आय का एक प्रमुख साधन माना जाने लगा है। इतना ही नहीं गाय के मांस को स्वाद तथा कीमतों की दृष्टि से 18 भागों में बांटा गया है। गाय के पीठ के भाग को, जिसे शिरोन कहते हैं, सबसे अधिक स्वादिष्ट तथा महंगा बताकर बेचा जाता है।
         गौहत्या रोकने के प्रयत्न- गौहत्या रोकने के संदर्भ में सर्वप्रथम अनुकरणीय प्रयत्न राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने किया। 1952 में गौपाष्टमी से गौहत्या बंदी आंदोलन चलाया। लेकिन शर्मनाक ढंग से पं. नेहरू ने इसे एक राजनीतिक चाल कहा। इसके बावजूद अनेक मुसलमानों, ईसाईयों तथा यहूदियों ने हस्ताक्षर अभियान में सहयोग दिया। केवल चार सप्ताह की अवधि में पौने दो करोड़ लोगों से गौहत्या बंदी के समर्थन में हस्ताक्षर करवा कर भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद को भेंट किये गये। देश के अनेक संतो, ऋषियों, जैन-मुनियों ने इसमें पूरा सहयोग किया। इसके साथ ही गौहत्या बंदी के लिए केन्द्र को संविधान में संशोधन कर कानून बनाने का भी आग्रह किया गया। बाद में बंगाल तथा केरल को छोड़कर सभी प्रांतों में गौहत्या बंदी कानून भी बनाये गये, लेकिन राजनीतिक हितों का ध्यान रखते हुए न केन्द्र सरकार द्वारा कोई कानून बनाया गया और न ही प्रांतों से गौमांस के निर्यात अथवा गौहत्या को रोकने का कोई दबाव बनाया। इतना ही नहीं, कुछ वामपंथी लेखकों ने गौहत्या के समर्थन में वेदों के प्रमाण तक गढ़ डाले तथा सही अर्थों को समझे बिना इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में उन्हें जबरदस्ती शामिल करवा दिया। निष्कर्ष यही निकलता है कि गाय की रक्षा हर कीमत पर होनी चाहिए। भारत की अर्थव्यवस्था, सामाजिक चिन्तन तथा संस्कृति का विकास इसके बिना संभव नहीं है। गौहत्या रोकने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा कठोर कानून बनाया जाना चाहिए। इस कानून के उल्लंघन पर उत्तरदायी व्यक्ति तथा अधिकारी को कठोर सजा दी जानी चाहिए। गौहत्या को नर हत्या ही नहीं, बल्कि देश की हत्या माना चाहिए।
आरोग्य सम्पदा मासिक पत्रिका माह अक्टूबर 2014 में डाॅ. सतीश चन्द्र मित्तल जी द्वारा लिखित आलेख से साभार

नवरात्र-दशहरे के रंग बच्चों के संग

रावण वध देखने के उत्साह में उड़ जाती थी नींद

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सभी पाठकों को विजयादशमी की हार्दिक मंगलकामनाएं




संघर्ष की सुखद अनुभूति

अपना अपना दीपावली उपहार

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ये जो तंग गली
सड़क किनारे बिखरा
शहर की बहुमंजिला इमारतों
घरों से
सालभर का जमा कबाड़
बाहर निकल आया
उत्सवी रंगत में
उसकी आहट से
कुछ मासूम बच्चे
खुश हो निकल पड़े हैं
उसे समेटने
यूँ ही खेलते-कूदते
आपस में लड़ते-झगड़ते
वे जानते हैं
त्यौहार में मिलता है
हर वर्ष सबको
अपना अपना दीपावली उपहार!
                             ...कविता रावत

पंच दिवसीय दीप पर्व

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पंच दिवसीय दीप पर्व का आरम्भ भगवान धन्वन्तरी की पूजा-अर्चना के साथ होता है, जिसका अर्थ है पहले काया फिर माया। यह वैद्यराज धन्वन्तरी की जयन्ती है, जो समुद्र मंथन से उत्पन्न चौदह रत्नों में से एक थे। यह पर्व साधारण जनमानस में धनतेरस के नाम से जाना जाता है। इस दिन लोग पीतल-कांसे के बर्तन खरीदना धनवर्धक मानते हैं। इस दिन लोग घर के आगे एक बड़ा दीया जलाते हैं, जिसे ‘यम दीप’ कहते हैं। मान्यता है कि इस दीप को जलाने से परिवार में अकाल मृत्यु या बाल मृत्यु नहीं होती। 
          दूसरे दिन मनाई जाने वाली कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को छोटी दीवाली या नरक चतुर्दशी अथवा रूप चतुर्दशी कहते हैं। पुराण कथानुसार इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने आततायी दानव नरकासुर का संहार कर लोगों को उसके अत्याचार से मुक्ति दिलाई थी। इस दिन को श्री कृष्ण की पूजा कर इसे रूप चतुर्दशी के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन पितृश्वरों का आगमन हमारे घरों में होता है अतः उनकी आत्मिक शांति के लिए यमराज के निमित्त घर के बाहर तेल का चौमुख दीपक के साथ छोटे-छोटे 16 दीए जलाए जाते हैं। उसके बाद रोली, खीर, गुड़, अबीर, गुलाल और फूल इत्यादि से ईष्ट देव की पूजा कर अपने कार्य स्थान की पूजा की जाती है। पूजा उपरांत सभी दीयों को घर के अलग-अलग स्थानों पर रखते हुए गणेश एवं लक्ष्मी के आगे धूप दीप जलाया जाता है। 
तीसरे दिन अमावास्या की रात्रि में दीवाली पर्व मनाया जाता है। दिन भर लोग अपने घर-आंगन की  साफ-सफाई कर कर रंगोली बनाते हैं। सायंकाल खील-बताशे, मिठाई आदि खरीदते हैं। दीए, कपास, बिनौले, मशाल, तूंबड़ी, पटाखे, मोमबत्ती आदि की व्यवस्था घर-घर में होती है। सूर्यास्त के कुछ समय पश्चात् दीप जलाने की श्रृंखला आरम्भ कर सभी लोग नए वस्त्र पहनकर शुभ मुहूर्त में लक्ष्मी पूजन करते हैं। शहरों में व्यापारी नए बही खातों का पूजन करते हैं तो कुछ श्रद्धालुजन इस रात विष्णु सहस्रनाम के पाठ का आयोजन करते हैं। गांवों में घर के बाहर तुलसी, गोवर्धन, पशुओं की खुरली, बैलगाड़ी, हल आदि के पास भी दीए रखे जाते हैं। गांव की गलियों,पगडंडियों, मंदिर, कुएं, पनघट, चौपाल आदि सार्वजनिक स्थानों पर भी दीए रखे जाते हैं। अमावस्या की रात को तांत्रिक भी बहुत उपयुक्त मानकर अपने मंत्र-तंत्र की सिद्धि करते हैं। कई लोग टोटके भी करते देखे जाते हैं।      
लक्ष्मी पूजा की रात्रि को सुखरात्रि भी कहते हैं। इस अवसर पर लक्ष्मी पूजा के साथ-साथ कुबेर की पूजा भी की जाती है, जिससे सुख मिले। लक्ष्मी प्राप्ति के लिए पुराणों में कहा गया है कि-
वसामि नित्यं सुभगे प्रगल्भे दक्षे नरे कर्मणि वर्तमाने।
अक्रोधिने देवपरे कृतज्ञे जितेन्द्रिये निम्यपुदीर्णसत्तवे।।
स्वधर्मशीलेषु च धर्मावित्सु, वृद्धोपसवतानिरते च दांते।
कृतात्मनि क्षान्तिपरे समर्थे क्षान्तासु तथा अबलासु।।
वसामि वारीषु प्रतिब्रतासु कल्याणशीलासु विभूषितासु।
सत्यासु नित्यं प्रियदर्शनासु सौभाग्ययुक्तासु गुणान्वितासु।।
     अर्थात् मैं उन पुरुषों के घरों में निवास करती हूं जो स्वरूपवान, चरित्रवान, कर्मकुशल तथा तत्परता से अपने काम को पूरा करने वाले होते हैं। जो क्रोधी नहीं होते, देवताओं में भक्ति रखते हैं, कृतज्ञ होते हैं तथा जितेन्द्रिय होते हैं। जो अपने धर्म, कत्र्तव्य और सदाचरण में सतर्कता से तत्पर होते हैं। सदैव विषम परिस्थितियों में भी अपने को संयम में रखते हैं। जो आत्मविश्वासी होते हैं, क्षमाशील तथा सर्वसमर्थ होते हैं। इसी प्रकार उन स्त्रियों को घर मुझे पसंद हैं जो क्षमाशील, जितेन्द्रिय, सत्य पर भक्ति रखने वाली होती हैं तथा जिन्हें देखकर चित्त प्रसन्न हो जाता है। जो सौभाग्यवती, गुणवती पति से अटूट भक्ति रखने वाली, सबका कल्याण चाहने वाली तथा सदगुणों से अलंकृत होती हैं। 
     चौथे दिन गोवर्धन पूजा की जाती है। मान्यता है कि इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन की पूजा कर उसे अंगुली पर उठाकर इन्द्र द्वारा की गई अतिवृष्टि से गोकुल को बचाया था। इस पर्व के दिन बलि पूजा, अन्नकूट आदि को मनाए जाने की परम्परा है। इस दिन गाय, बैल आदि पशुओं को स्नान कराकर फूल माला, धूप, चंदन आदि से उनका पूजन किया जाता है। कहा जाता है कि इस दिन गौमाता की पूजा करने से सभी पाप उतर जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है। गोवर्धन पूजा में गाय के गोबर से गोवर्धन पर्वत बनाकर जल, मोली, रोली, चावल, फूल, दही, खीर तथा तेल का दीपक जलाकर समस्त कुटुंब-परिजनों के साथ पूजा की जाती है।
    दीप पर्व के पांचवे दिन भाई दूज का त्यौहार मनाया जाता है। इसमें बहिन अपने भाई की लम्बी आयु व सफलता की कामना करती है। भैयादूज का दिन भाई-बहिन के प्रेम के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। बहिने अपने भाई के माथे पर तिलक कर उनकी आरती कर उनकी दीर्घायु की कामना के लिए हाथ जोड़कर यमराज से प्रार्थना करती है।  भाई दूज को यम द्वितीया भी कहा जाता हैं ऐसा माना जाता है कि इसी दिन मृत्यु के देवता यम की बहिन यमी (सूर्य पुत्री यमुना) ने अपने भाई यमराज को अपने घर  निमंत्रित कर तिलक लगाकर भोजन कराया था तथा भगवान से प्रार्थना की थी कि उनका भाई सलामत रहे। इसलिए इसे यम द्वितीया कहते हैं।


ज्योति पर्व का प्रकाश आप सभी के जीवन को सुख, समृद्धि  एवं वैभव से आलोकित करे, 
यही मेरी शुभकामना है...... कविता रावत 

हर मनुष्य की अपनी-अपनी जगह होती है

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हरेक पैर में एक ही जूता नहीं पहनाया जा सकता है।
हरेक  पैर  के  लिए  अपना  ही जूता ठीक रहता है।।

सभी लकड़ी तीर बनाने के लिए उपयुक्त नहीं रहती है। 
सब   चीजें  सब  लोगों  पर  नहीं  जँचती   है।।

कोई जगह नहीं मनुष्य ही उसकी शोभा बढ़ाता  है। 
बढ़िया कुत्ता बढ़िया हड्डी का हकदार बनता है ।।

एक मनुष्य का भोजन दूसरे के लिए विष हो सकता है ।
सबसे  बढ़िया  सेब को  सूअर  उठा ले  भागता  है।।

शहद गधे को खिलाने की चीज नहीं होती है ।
सोना नहीं गधे को तो घास पसंद आती है ।।

हरेक चाबी हरेक ताले में नहीं लग पाती है ।
हर मनुष्य की अपनी-अपनी जगह होती है ।। 

                            .... कविता रावत  


क्या है तेरे दिल का हाल रे

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मिला तेरा प्यारा भरा साथ
हुआ है मेरा दिल निहाल रे
आकर पास तू भी बता जरा
क्या है तेरे दिल का हाल रे

मिला प्यारा हमसफ़र जिंदगी का
दिल ने दिल से नाता जोड़ा रे
जब से प्यार में डूबना सीखा दिल ने
तब से मन ने उदास रहना छोड़ा रे

अब हुआ है दिल पागल प्यार में
तुझसे दूर नहीं कोई दिल का राज रे
अच्छा लगता तेरे प्यार में डूबना
अब तो सूझे नहीं दूजा कोई काज रे

डूबकर लिखूं प्यार भरी पाती
हुआ प्यार से दिल  निहाल रे
उठा कलम तू भी लिख जरा
क्या है तेरे दिल का हाल रे।

वैवाहिक जीवन की 20वीं वर्षगांठ पर सोच रही थी कि क्या लिखूं, तो संदूकची में पड़ी डायरी याद आयी तो उसमें बहुत सी प्रेम पातियाँ निकलती गई। यादें ताजी हुई तो सोचा एक छोटी सी अबोध रचना प्रस्तुत कर दूँ।
 ....कविता रावत 



भोपाल गैस त्रासदी: मैं ही नहीं अकेली दुखियारी

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अब तक 15 हज़ार से भी अधिक लोगों को मौत के आगोश में सुला देने वाली विश्व की सबसे बड़ी औधोगिक त्रासदी की आज 31वीं बरसी है। आज भी जब मौत के तांडव का वह भयावह दृश्य याद आता है तो दिल दहल जाता है और ऑंखें नम हुए बिना नहीं रहती. आधी रात बाद हुई इस विभीषिका का पता हमें तब लगा जब आँखों में अचानक जलन और खांसी से सारे घरवालों का बुरा हाल होने लगा। पिताजी ने बाहर आकर देखा तो बाहर अफरा-तफरी मची थी। घर के सामने पहाड़ी से लोग गाडी-मोटर और पैदल इधर-उधर भाग रहे थे। लोग चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे थे कि गैस रिस गई है। हम भी एक गाडी में जो पहले से ही ठूस-ठूस कर भरी थी। उसमें ही ठुस गए। भोपाल से दूर जाकर ही कुछ राहत मिली। सुबह 5 बजे वापस आये तो फिर से अफवाह फैली कि फिर से गैस रिस गई है और हमें फिर भागना पड़ा।आँखों में जलन और श्वास की तकलीफ का चलते जब हॉस्पिटल जाना हुआ तो रास्ते में सैकड़ों मवेशी इधर-उधर मरे पड़े दिखे। भ्रांतियों और आतंक से घोर सन्नाटा पसरा था। लोग ट्रकों से भर-भर कर इलाज के लिए आ रहे थे, कई लोग उल्टियाँ तो कई आँखों को मलते लम्बी लम्बी सांस लेकर सिसकियाँ भर रहे थे। कई बेहोश पड़े थे जिन्हें ग्लूकोस और इंजेक्शन दिया जा रहा था। अस्पताल के वार्डों के फर्श पर शवों के बीच इंजेक्शन के फूटे एम्म्युल और आँखों में लगाने की मलहम की खाली ट्यूबें बिखरी पड़ी थी। मरने वालों में सबसे ज्यादा बच्चे थे, जिन्हें देखकर हर किसी के आँखों से आंसूं रुके नहीं रुकते थे. 
          इस त्रासदी में लोगों का असहनीय दुःख देख मैं अपना दुःख भूल गई.....

मैं ही नहीं अकेली कहाँ इस जग में दुखियारी
आँख खुली जब दिखी दुःख में डूबी दुनिया सारी
एक तरफ कांटे दिखे पर दूजी तरफ दिखी फुलवारी 
समझ गयी मैं गहन तम पर उगता सूरज है भारी 
गहन तम में नहीं इस दिल को कुछ सूझ पाया है
पर परदुःख में मैंने अक्सर दुःख अपना छुपाया है 
इसी भाव से मन में बहती सबके सुख-दुःख की सरिता
जब द्रवित होता अंतर्मन तब साकार हो उठती कविता 
         इस विभीषिका के कई सवाल उभर कर आये लेकिन समय के साथ-साथ ये सवाल भी काल के गर्त में समा गए हैं. मसलन क्यों और किस आधार पर इतनी घनी आबादी के बीच संयंत्र लगाने की अनुमति दी गई. पुख्ता सुरक्षा व्यवस्था के इंतजाम क्यों नहीं थे आदि बहुत से प्रश्नों के साथ यह भी अनुतरित प्रश्न आज भी हैं कि गैस त्रासदी की जांच के लिए बिठाए गए न्यायिक आयोग को गैस सयंत्र की स्थापना की अनुमति सम्बन्धी जांच का अधिकार क्यों नहीं सौंपा गया? सयंत्र के अध्यक्ष वारेन एंडरसन एवं कंपनी के ७ अन्य अधिकारियों के खिलाफ सबसे पहले आईपीसी की किन धाराओं में मुकदमें दर्ज हुए, उनमें से १२० व अन्य धाराएँ बाद में कैसे हट गई? चेयरमेन को ७ दिसम्बर को गिरफ्तार कर जमानत पर रिहा क्यों किया गया? कार्बाइड कारखाने के घातक रसायनों का अब तक निपटारा क्यों संभव नहीं हो सका है?
          भोपाल की यह विभीषिका जहाँ विश्व की भीषण दुर्घटनाओं में एक है, जिसमें हजारों लोग मारे गए और आज भी कई हजार कष्ट और पीड़ा से संत्रस्त होकर उचित न्याय और सहायता की आस लगाये बैठे हैं, क्या यह खेदजनक और दुखप्रद नहीं कि सत्ता की गलियारों में बैठे अपनी सिर्फ थोथी शेखी बघारकर अपने प्राथमिक कर्तव्य से विमुख होकर वोट की राजनीति में ही लगे रहते हैं?
         ....कविता रावत 


असहाय वेदना

न्याय का इंतज़ार कर रहे गैस पीड़ित

उद्यम से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है

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सोए हुए भेड़िए के मुँह में मेमने अपने आप नहीं चले जाते हैं।
भुने   हुए   कबूतर   हवा   में  उड़ते  हुए  नहीं  पाए  जाते  हैं।।

सोई लोमड़ी के मुँह में मुर्गी अपने-आप नहीं चली जाती है।
कोई  नाशपाती बन्द मुँह  में  अपने  आप  नहीं  गिरती है।।

गिरी  खाने  के लिए अखरोट को तोड़ना पड़ता है।
मछलियाँ पकड़ने के लिए जाल बुनना पड़ता है।।

मैदान  का नजारा देखने के लिए पहाड़ पर चढ़ना पड़ता है।
परिश्रम में कोई कमी न हो तो कुछ भी कठिन नहीं होता है।।

एक जगह मछली न मिले तो दूसरी जगह ढूँढ़ना पड़ता है।
उद्यम   से   सब   कुछ   प्राप्त   किया   जा   सकता  है।।

... कविता रावत 

नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं

शक्ति और शिक्षा पर विवेकानन्द का चिंतन

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शारीरिक दुर्बलता : महान् उपनिषदों का ज्ञान होते हुए भी तथा अन्य जातियों की तुलना में हमारी गौरवपूर्व संत परम्पराओं का सबल होते हुए भी मेरे विचार में हम निर्बल हैं। सर्वप्रथम हमारी शारीरिक निर्बलता ही हमारी विपदाओं और कष्टों का विषम आधार है। हम आलसी हैं, हम कृतत्वहीन हैं, हम संगठित नहीं हो सकते, हम परस्पर स्नेह नहीं करते, हम अत्यधिक स्वार्थी हैं, हम सदियों से केवल इस बात पर आपस में लड़ रहे हैं कि मस्तक पर टीका लगाने का ढंग कैसा हो? और ऐसे तर्कहीन विषयों पर हमने अनेक ग्रन्थों की रचना कर डाली कि किसी के देखने मात्र से हमारा भोजन दूषित हो जाता है अथवा नहीं! यह नकारात्मक भूमिका हम विगत कुछ शताब्दियों से लगातार अपना रहे हैं। क्या कोई जाति ऐसे कुतर्कपूर्ण, अनुपयोगी समस्याओं और उनके अन्वेषणों पर अपने बौद्धिक चातुर्य का दुरुपयोग कर किसी महान् अभिलाषा की कल्पना कर सकती है? और इसके कारण हम आत्म-लज्जित भी नहीं हैं! हाँ, इसके कारण हम ऐसा सोचते भी हैं और मानते हैं कि ये तुच्छ विचार हैं, परन्तु उन्हें छोड़ नहीं पाते!
 हम अनेक विचार ‘तोता-रटंत’ की तरह दोहराते हैं परन्तु उनका कभी पालन नहीं करते, किसी बात को कहना परन्तु उसका पालन नहीं करना हमारी आदत और नियति बन चुकी है, इसका कारण क्या है? हमारी शारीरिक दुर्बलता के कारण हमारी कमजोर बुद्धि किसी काम को करने में समर्थ नहीं है, हमें इस कमजोरी को ताकत बनाना चाहिए, ऐसी आपको मेरी सलाह है। आप गीता पढ़ने की बजाय, फुटबाल के द्वारा स्वर्ग के अधिक पास पहुँच सकते हो! ये शब्द बेधड़क किन्तु सुस्पष्ट हैं और मैं ये इसलिए कह रहा हूँ कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ, मुझे मालूम है कि तुम्हें जूता कहाँ पर काट रहा है, मुझे इस विषय का कुछ अनुभव भी हुआ है। तुम्हें अपने घुटनों के और भुजाओं के तनिक से अधिक बल पर गीता ज्ञान का कुछ अधिक बोध हो सकता है, जब तुम अपने मजबूत पैरों पर खड़े होकर अपने पुरुषत्व का अनुभव करोगे तभी तुम उपनिषदों को भली प्रकार समझ सकोगे। तब तुम्हें महान् प्रतिभा और भगवान कृष्ण की महान् शक्ति का आभास होगा जब तुम्हारी रगों में कुछ तेज रक्तप्रवाह का संचार होगा। इस प्रकार तुम अपनी आवश्यकताओं के अनुसार उठ सकोगे।
आधुनिक औषधि विज्ञान के अनुसार हम जानते हैं कि किसी भी व्याधि के आने के दो कारण होते हैं, बाहरी विषाणु और शारीरिक अल्प-आरोग्यता। जब तक शरीर में जीवाणु प्रवेश के प्रति अवरोध शक्ति है, जब तक शरीर की आंतरिक शक्ति जीवाणु-प्रवेश, उनके पनपने एवम् संवृद्धि के प्रतिकूल है तब तक कोई जीवाणु इतना शक्तिशाली नहीं है कि वह शरीर में रोग उत्पन्न कर सके। वास्तव में लाखों जीवाणु लगातार मानव शरीर में आते-जाते रहते हैं, परन्तु जब तक शरीर हृष्ट-पुष्ट है वह उनसे अप्रभावित रहता है। शरीर कमजोर होने पर ही जीवाणु उस पर हावी होते हैं और रोग उत्पन्न करते हैं। 
         बल :  यह एक बड़ा सत्य है कि बल ही जीवन है और दुर्बलता ही मरण। बल ही अनन्त सुख है, अमर और शाश्वत जीवन है और दुर्बलता ही मृत्यु। 
लोग बचपन से ही शिक्षा पाते हैं कि वे दुर्बल हैं, पापी हैं। इस प्रकार की शिक्षा से संसार दिन-ब-दिन दुर्बल होता जा रहा है। उनको सिखाओ कि वे सब उसी अमृत की संतान हैं- और तो और, जिसके भीतर आत्मा का प्रकाश अत्यन्त क्षीण है, उसे भी यही शिक्षा दो। बचपन से ही उनके मस्तिष्क में इस प्रकार के विचार प्रविष्ट हो जायें, जिनमें उनकी यथार्थ सहायता हो सकें, जो उनको सबल बना दें, जिनसे उनका कुछ यथार्थ हित हो। दुर्बलता और अवसादकारक विचार उनके मस्तिष्क में प्रवेश ही न करें। सच्चिन्तन के स्त्रोत में शरीर को बहा दो, अपने मन से सर्वदा कहते रहो, ‘मैं ही वह हूँ, मैं ही वह हूँ।’ तुम्हारे मन में दिन-रात यह बात संगीत की भाँति झंकृत होती रहे और मृत्यु के समय भी तुम्हारे अधरों पर सोऽहम्, सोऽहम् खेलता रहे। यही सत्य है- जगत की अनन्त शक्ति तुम्हारे भीतर है।
वह क्या है जिसके सहारे मनुष्य खड़ा होता है और काम करता है? वह है बल। बल ही पुण्य है तथा दुर्बलता ही पाप है। उपनिषदों में यदि कोई एक ऐसा शब्द है जो वज्र-वेग से अज्ञान-राशि के ऊपर पतित होता है, उसे तो बिल्कुल उड़ा देता है, वह है ‘अभीः’ - निर्भयता। संसार को यदि किसी एक धर्म की शिक्षा देनी चाहिए तो वह है ’निर्भीकता’।  यह सत्य है कि इस एैहिक जगत में अथवा आध्यात्मिक जगत में भय ही पतन तथा पाप का कारण है। भय से ही दुःख होता है, यही मृत्यु का कारण है तथा इसी के कारण सारी बुराई होती है और भय होता क्यों है?- आत्मस्वरूप के अज्ञान के कारण।
बलिष्ठ एवम् निर्भीक बनो!
       बलिष्ठ बनो! बहादुर बनो! शक्ति एक महत्वपूर्ण विधा है, शक्ति जीवन है। निर्बलता मृत्यु है। खड़े हो जाओ। निर्भीक बनो। शक्तिशाली बनो। भारत वीरों का आह्वान कर रहा है। नायक बनो। चट्टान की भाँति अटल खड़े हो जाओ। भारत माता अनन्त ऊर्जा, अनन्त उत्साह और अनन्त साहस का आह्वान कर रही है। 
स्वामी विवेकानंद ने संस्कारित शिक्षा-प्रणाली पर जोर दिया। वे चाहते थे कि समाज में संस्कार युक्त शिक्षा प्रणाली का विकास हो। उन्होंने देश में ऐसी शिक्षा प्रणाली का विकास किया, जो देश व समाज की सांस्कृतिक जीवनदर्शी व राष्ट्रीय परम्पराओं के अनुरूप हो। स्वामी विवेकानंद चाहते थे कि व्यक्ति की श्रेष्ठता, महानता व इसके असीम विकास का आधार मात्र-शरीर, बुद्धि कौशल व शिक्षा नहीं है, बल्कि इसका आधार है ज्ञानार्जन के साथ-साथ संस्कारित शिक्षा पद्धति। इसके साथ ही अन्दर की पवित्रता तथा आचरण की श्रेष्ठता। 
         शिक्षा : शिक्षा का अर्थ है, उस पूर्णता की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है। शिक्षा किसे कहते हैं? क्या वह पठन-मात्र है? नहीं। क्या वह नाना प्रकार का ज्ञानार्जन है? नहीं, यह भी नहीं। जिस संयम के द्वारा इच्छा-शक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है। अब सोचो कि शिक्षा क्या वह है, जिसने निरन्तर इच्छा-शक्ति को बलपूर्वक पीढ़ी-दर-पीढ़ी रोककर प्रायः नष्ट कर दिया है, जिसके प्रभाव से नये विचारों की तो बात ही जाने दो, पुराने विचार भी एक-एक करके लोप होते चले जा रहे हैं, क्या वह शिक्षा है, जो मनुष्य को धीरे-धीरे यंत्र बना रही है?
मेरे विचार से तो शिक्षा का सार मन की एकाग्रता प्राप्त करना है, तथ्यों का संकलन नहीं। यदि मुझे फिर से अपनी शिक्षा आरम्भ करनी हो और इसमें मेरा वश चले, तो मैं तथ्यों का अध्ययन कदापि न करूँ। मैं मन की एकाग्रता और अनासक्ति को सामथ्र्य बढ़ाता और उपकरण के पूर्णतया तैयार होने पर उससे इच्छानुसार तथ्यों का संकलन करता। बच्चों में मन की एकाग्रता और अनासक्ति का सामथ्र्य एक साथ विकसित होना चाहिए।
        संस्कारित शिक्षा: “जो समाज गुरु द्वारा प्रेरित है, वह अधिक प्रेम से उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है, इसमें कोई संदेह नहीं। किन्तु जो समाज गुरु विहीन है, उसमें भी समय की गति के साथ-साथ गुरु का उदय तथा ज्ञान का विकास होना उतना ही निश्चित है।“
       योग शिक्षा : “हम सब योगी बनकर जीवन सफल बनाएँगे। भारत के हरेक व्यक्ति को योग सिखाएँगे।।“
प्रत्येक व्यक्ति में अनंत ज्ञान और शक्ति का आवास है। वह शिक्षा देता है कि जिस प्रकार वासनाएँ और अभाव मानस के अंतर में हैं, उसी प्रकार उसके भीतर ही मन के अभावों के मोचन की शक्ति भी है और जहाँ कहीं और जब कभी किसी वासना, अभाव या प्रार्थना की पूर्ति होती है, तो समझना होगा, कि वह इस अनंत भंडार से ही पूर्ण होती है। हम लोग अपने वर्तमान सविशेष अर्थात् सापेक्ष भाव के पीछे विद्यमान एक निर्विशेष भाव में लौटने के लिए लगातार अग्रसर हो रहे हैं। स्वामी विवेकानंद जी ने योग शिक्षा के माध्यम से एक नई शिक्षा प्रणाली का प्रचार कर जन-जन को योग शिक्षा के महत्व से परिचित कराया। उन्होंने योग शिक्षा को जीवन में महत्वपूर्ण स्थान देने के लिए प्रेरित किया। आज भी प्रत्येक व्यक्ति योग शिक्षा के महत्व को जानता है और उसे अपने जीवन में अपनाता है।
        आज हमारे देश को आवश्यकता है लोहे के मांसपेशियों, इस्पात की तंत्रिकाओं और अति विशाल आत्मविश्वास की, जिसको कोई नकार न सके।
“उठो! जागो! और लक्ष्य प्राप्त होने तक रुको मत।“ 

संकलित  

सूर्योपासना का पर्व है मकर संक्रांति

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हमारे भारतवर्ष में मकर संक्रांति, पोंगल, माघी उत्तरायण आदि नामों से भी जाना जाता है। वस्तुतः यह त्यौहार सूर्यदेव की आराधना का ही एक भाग है। यूनान व रोम जैसी अन्य प्राचीन सभ्यताओं में भी सूर्य और उसकी रश्मियों को भगवान अपोलो और उनके रथ के स्वरूप की परिकल्पना की गई है। अपोलो मतलब ऊष्मा, प्रकाश तथा स्वास्थ्य व उपचार के देवता। अर्थात् जब से मानव में समझ का विकास हुआ, तब से ही उसे यह भी स्पष्ट आभास हो गया कि सूर्य इस धरती के नियंताओं में सर्वोपरि है। सूर्य का उत्तरायण होना एक खगोलीय घटना भर नहीं है। संक्रांति पर पर्व और उल्लास की परम्परा शायद मानव जाति की ओर से सूर्यदेव को धन्यवाद ज्ञापन है अथवा शायद हर नई पीढ़ी को हमारे पुरखों की नैसर्गिक विद्वता में लिपटा संदेश है, जिसे उन्होंने गहन अनुभव शोधन से समझा था। 
          मकर संक्रांति आध्यात्मिक और सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण पर्व है। इसी दिन सूर्य उत्तर दिशा की ओर बढ़ता है। इसी दिन उत्तरायण शुरू होता है, अभी तक दक्षिणायण रहता है। खगोलीय दृष्टि से भी यह बहुत महत्वपूर्ण दिन है। पुराणों में कहा गया है कि दक्षिणायण देवताओं की रात और उत्तरायण देवों के लिए दिन माना जाता है। यह दिन दान, पूजा-हवन, यज्ञ करने के लिए सर्वाधिक श्रेष्ठ है। भीष्म पितामह को भी इसी दिन इच्छा मृत्यु का वर प्राप्त हुआ। उन्होंने इसी दिन अपनी देह त्यागी ताकि उन्हें पुनर्जन्म से मुक्ति मिले। पितरों के लिए 16 दिन तर्पण करने से जो शास्त्रोक्त फल प्राप्त होता है उतना पुण्य मकर संक्रांति के दिन तर्पण करने से मिलता है।
          इस माह कहीं पूर्णिमा से माह की शुरुआत होती है तो कहीं मकर संक्रांति से होती है। मकर राशि में सूरज जिस दिन प्रवेश करता है, उसे सौरमान कहते हैं। यह दिन अच्छा पुण्यकाल माना जाता है इसलिए किसी नदी में आह्वान करके स्नान करने का विधान है। पद्मपुराण में उल्लेख है कि भगवान विष्णु ने इस दिन असुरों का वध करके, नाश करके भूमि पर शांति स्थापित की थी। अधर्म का नाश हुआ और धर्म की प्रतिष्ठा हुई इसलिए इसे मुख्य पर्व माना गया। मकर संक्रांति पर सूरज की पूजा, अपने पूर्वजों के लिए तर्पण और नदी स्नान करना चाहिए। नई फसल का दान करना चाहिए। अन्य पर्वों का उद्देश्य होता है कि खा-पीकर खुश हो जाना, जबकि मकर संक्रांति पर दान करके आनन्द प्राप्त किया जाता है। स्मृतियों में कहा गया है कि जो आप कमाई करते हैं, उसका दो फीसदी धर्म कार्यों के लिए खर्च करना चाहिए, जो पूरे साल राशि संचित की है, उसको मकर संक्रांति पर खर्च करना चाहिए। अर्थात् 12 माह में जुटाई गई 24 फीसदी कमाई का दान करना चाहिए। इससे दान पाने वाले गरीब का जीवन सुधरता है। धनी लोगों का पैसा निचले तबके के लोगों के पास जाता है जिससे उनके धन में भी वृद्धि होती है। इस दिन तेल से स्नान करना, तिल का दान करना, तिल से होम करना, तिल को जल में मिलाकर तर्पण करना, तिल को खाना और खिलाना श्रेयस्कर माना गया है। श्राद्ध के दौरान तो तिल में होम करते हैं, तर्पण नहीं करते हैं। इसलिए यह पर्व खास है। पूर्वजों के लिए यह पर्व अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है। तिल का उपयोग सभी पापों से मुक्त कराता है। मकर संक्रांति जैसे पर्वों के बारे में नई पीढ़ी को संस्कारित किया जाना चाहिए। इसके लिए सामूहिक आयोजन कर उन्हें इसके महत्व की जानकारी देनी चाहिए। पूर्व में हर गांव, शहर, नगर में ऐसे आयोजन होते थे, अब नहीं होते हैं इसलिए ऐसे पर्वों के संस्कार पीछे छूट गए हैं।          
अथर्ववेद की ऋचा कहते है-  आभारिषं विश्वभेषजीमस्यादृष्टान् नि शमयत्।  अर्थात्, सूर्य किरणें सर्वरोगनाशक हैं। वे रोगकृमियों को नष्ट करें। इस विषय पर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी अपनी रिपोर्ट के अनुसार सूर्य की रोशनी में पाए जाने वाले अल्ट्रा वाॅयलेट विकिरण की अधिकता से होने वाले नुकसान की अपेक्षा सूर्य प्रकाश की कमी से होने वाली समस्याओं का बोझ कहीं ज्यादा है। विटामिन-डी लगभग एक हजार जीन के सही संचालन में मददगार है, वो जीन जो मुख्यतः कैल्शियम मेटाबाॅलिज्म, न्यूरोमस्कुलर तंत्र तथा प्रतिरक्षा तंत्र के लिए आवश्यक है। यह विटामिन हमारी त्वचा में सूर्य प्रकाश की मदद से ही बनता है, जिसमें कपड़े, तन की अतिरिक्त चर्बी और त्वचा का मेलैनिन पिगमेंट बाधा डालते हैं। कैल्शियम मेटाबाॅलिज्म पर विटामिन-डी की कमी का असर है हड्डियों का कमजोर होना और कमजोर हड्डी हर घड़ी के दर्द और टीस से लेकर स्त्रियों में गर्भावस्था के दौरान विभिन्न जटिलताओं का कारण बनती है। आजकल बहुत से वैज्ञानिक शोधों के उपरांत विटामिन-डी का उपयोगी किरदार समझ में आ रहा है। मेलाटोनिन, सेरोटोनिन जैसे जैव-रसायनों का बहुत गहन संबंध मानसिक स्वास्थ्य से भी है। विभिन्न अनुसंधानों में पाया गया है कि सूर्य की रोशनी का अभाव तनाव (डिप्रेशन) की समस्या को जन्म देता है। यह तो सर्वविदित है कि सूर्य की ऊर्जा मनुष्य के लिए हानिकारक लगभग सभी बैक्टीरिया, वायरस तथा फफूंद का नाश करती हैं। इसी वैज्ञानिक तथ्य के परिणामस्वरूप हमारे घरों में सदियों से सामान को धूप दिखाकर शुद्ध करने की परम्परा आज भी कायम है।

सभी ब्लॉगर्स साथियों और सुधि पाठकों को मकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएं!


जिन्दगी गुलाब सी बनाओ साथियो

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किसी ने गुलाब के बारे में खूब कहा है- “गीत प्रेम-प्यार के ही गाओ साथियो, जिन्दगी गुलाब सी बनाओ साथियो। फूलों के बारे में अनेक कवियों, गीतकारो और शायरो ने अपने मन के विचारों को व्यक्त किया है, जैसे-  “फूल-फूल से फूला उपवन, फूल गया मेरा नन्दन वन“। “फूल तुम्हे भेजा है खत में, फूल में ही मेरा दिल है“ और “बाहरो फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है।“ आदि।  यह सर्वविदित है कि जब भी हम किसी सामाजिक, पारिवारिक या अन्य खुशी के प्रसंग पर अपने प्रियजन से मिलने जाते हैं, तो उन्हें केवल फूल ही भेंट करते हैं, कोई भी व्यक्ति कांटे भेंट नहीं करता। इसीलिए कहा गया है कि अपने दयालु हृदय का ही सुन्दर परिचय देते हुए फूल बोना हमें सीखना चाहिए। फूलों से ही हमें प्यार करना सीखना चाहिए। जब हम फूलों को प्यार करेंगे, स्वीकार करेंगे तो हमारा जीवन भी फूलों की कोमलता, सुन्दरता के साथ ही उनके रंग, सौंदर्य और खुशबू की तरह महकता रहेगा।
बात फूलों की हो और उसमें अगर उनके राजा गुलाब की बात न हो, तो समझो वह बात अधूरी है। संसार में शायद ही कोई व्यक्ति हो, जिसके चेहरे पर इस बेजोड़ फूल को देखकर गुलाबी रंगत न छाये। प्रकृति के इस खूबसूरत रचना को करीब से देखने-समझने के अवसरों की मैं अक्सर तलाश में रहती हूँ। ऐसा ही एक सुअवसर मुझे नये वर्ष के प्रारम्भ में जनवरी माह के दूसरे और कभी-कभी तीसरे सप्ताह के शनिवार और रविवार को मिलता है, जब शासकीय गुलाब उद्यान में मध्यप्रदेश रोज सोसायटी और संचालनालय उद्यानिकी की ओर से दो दिवसीय अखिल भारतीय गुलाब प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है, जिसमें हजारों किस्म के गुलाब देखने और समझने का अवसर मिलता है।
इस वर्ष 16-17 जनवरी को 35वीं अखिल भारतीय गुलाब प्रदर्शनी देखने के साथ ही यह बताते हुए खुशी है कि आज गुलाब का फूल सिर्फ घर के बाग-बगीचों और किसी को भेंट करने का माध्यम भर नहीं है, बल्कि आज कृषक गुलाब की खेती कर बड़े पैमाने पर अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ कर रहे हैं। हमारे मध्यप्रदेश में गुलाब आधारित सुंगन्धित उद्योग एवं खेती संगठित क्षेत्र में पूर्व वर्षों में नहीं की जाती थी, जिसके फलस्वरूप कृषकों को सीमित क्षेत्र में अधिक आमदानी नहीं होती थी। प्रारम्भिक वर्षों में आवश्यक खाद्य पदार्थ जैसे-फल, सब्जी एवं मसाले के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हेतु विशेष प्रयास किये गये, जिसमें आशातीत सफलता नहीं मिली, लेकिन आज कृषक सीमित क्षेत्र में नवीनतम तकनीकी से फूलों की खेती कर अधिक आय प्राप्त कर रहे हैं, जिससे उनका रूझान फूलों की खेती की ओर बढ़ा है।
भारत में गुलाब की खेती का इतिहास लगभग 5000 वर्ष पुराना है। मोहन जोदड़ो-हड़प्पा आदि जिनका इतिहास 3000 वर्ष पुराना है, तब भी गुलाब की बगियों और गुलाब प्रमियों का उल्लेख मिलता है। धार्मिक ग्रन्थों में भी गुलाब की बगियों और गुलाबों का उल्लेख मिलता है। हिमालय की वादियों से लेकर उत्तर-पूर्व अर्थात् संपूर्ण भारत में गुलाब की खेती होती थी। गुलाब का उपयोग न केवल सौन्दर्यीकरण अपितु चरक-संहिता आदि के अनुसार दवाईयों विशेषकर आयुर्वेद में किया जाता रहा है।  इस प्रकार यह सर्वमान्य है कि गुलाब के प्रति लोगों में अगाध प्रेम की अभिव्यक्ति प्राचीनकाल से ही है तथा तब से ही भारत में सौन्दर्य, प्रेम, शांति, संस्कृति एवं खुशहाली का प्रतीक रहा है, जिसका उल्लेख विशेषकर मुगलकाल में पाया जाता है। 
आज हमारे देश में गुलाब की लगभग तीन हजार किस्में उपलब्ध हैं, जिनमें से लगभग 400 किस्में मध्यप्रदेश में उपलब्ध हैं। प्रत्येक किस्म उसके रंग के आधार पर अपनी महत्ता एवं सम्बन्ध का प्रतीक रखती है। एक मात्र गुलाब ही ऐसा पुष्प है, जो अपनी रंगों की सुन्दरता और महक के कारण विशिष्ट स्थान पाकर फूलों का राजा कहलाता है। इस तरह की प्रदर्शनी एवं संगोष्ठियों का आयोजन शहरी क्षेत्रों के अलावा ग्रामीण स्तर पर भी किए जाने चाहिए, जिससे इस दिशा में कृषकों को अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त हो सके और वे इसका समुचित लाभ उठा सके।    ....कविता रावत 




नेताजी सुभाषचंद्र बोस जयंती

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उड़ीसा की राजधानी और महानदी के तट पर बसे कटक नगर में रायबहादुर जानकीनाथ बोस के यहाँ 23 जनवरी, 1897 को सुभाष बाबू का जन्म उस समय हुआ जब देश पराधीनता की बेडि़यों में जकड़ा हुआ था। भारतीय राष्ट्रीय कांगे्रेस की स्थापना हो चुकी थी। देश में राजनैतिक चेतना आ रही थी। उनकी माता प्रभावती बोस पुराने कट्टर धार्मिक विचारों में विश्वास रखनी वाली महिला होने के बावजूद भी सरल हृदय, अच्छे स्वभाव वाली सीधी-साधी महिला थी। नेताजी सुभाषचंद्र बोस की पांच बहनें और छः भाई थे। संपन्न परिवार के होने के बावजूद नेताजी स्वार्थ और लालच जैसी बुराई से कोसों दूर थे। 
नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने जाति-पांति के भेदभाव को कभी भी महत्व नहीं दिया। वे हिन्दू-मुसलमानों में भेद नहीं रखते थे। दोनों को भाई मानते थे। इसका एक उदाहरण है- एक दिन उनकेे मोहल्ले में छोटी जाति के एक व्यक्ति ने  उनके घर वालों को खाने पर बुलाया। सबने न जाने का निश्चय किया, लेकिन सुभाष बाबू ने अपने माता-पिता की आज्ञा का उल्लंघन कर उनके यहां जाकर खाना खाया। एक अन्य प्रसंग पर कटक में हैजे के दौरान उन्होंने रोगियों की घर-घर जाकर सेवा की। इस रोग से पीडि़त एक गुण्डे हैदर के घर जब कोई डाॅक्टर, वैद्य उनके बुलावे पर नहीं आये तो उन्होंने स्वयं उसके घर जाकर अपने साथियों के साथ मिलकर उसके घर की साफ सफाई की, जिसे देखकर वह कठोर हृदय वाला गुण्डा द्रवित होकर एक कोने में जाकर रोने लगा। उसे बड़ी आत्मग्लानि हुई। तब नेता सुभाषचंद जी ने उसे सिर पर हाथ फेरते कहा-“ भाई तुम्हारा घर गंदा था, इसलिए इस रोग ने तुम्हें घेर लिया। अब हम उसकी सफाई कर रहे हैं। दूसरों के सुख-दुःख में जाना तो मनुष्य का कर्तव्य है।“ यह सुनकर हैदर से उनके पांव पकड़ कर बोला-“ नहीं, नहीं मेरा घर तो गंदा था ही, मेरा मन उससे भी ज्यादा गंदा था। आपकी सेवा ने मेरी गंदगी को निकाल दिया। मैं किस मुंह से आपको धन्यवाद दूं। परमात्मा करें आपकी कीर्ति संसार के कोने-कोने में फैले।“   
          नेताजी के भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु अमूल्य योगदान के लिए हम सभी सदैव ऋणी रहेंगे। उनके जैसे ओजस्वी वाणी, दृढ़ता, स्पष्टवादिता और चमत्कारी व्यक्तित्व वाले लोकप्रिय नेता की आज सर्वथा कमी महसूस होती है। स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु उनका भारतवासियों का उद्बोधन भला कौन भुला सकता है-“ अब आपका जीवन और आपकी सम्पत्ति आपकी नहीं है, वह भारत की है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि आप इस सरल सत्य को समझते हैं कि हमें किसी भी उपाय से स्वतंत्रता प्राप्त करनी है और अब हम एक ऐसे स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में हैं जो युद्ध की स्थिति में है तब आप सहज ही समझ जायेंगे कि कुछ भी आपका नहीं है। और आपका जीवन, धन, सम्पत्ति कोई भी चीज आपकी नहीं है। आपके लिए स्पष्टतः दूसरा रास्ता खुला हुआ है। वही रास्ता जो अंग्रेजों द्वारा अपनाया गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए कोई मध्य स्थिति नहीं हो सकती। तुम सभी को स्वतंत्रता के लिए पागल बनना होगा। तुम में से किसी को भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़े जाने वाले इस युद्ध में केवल अपनी सम्पत्ति का पांच प्रतिशत और दस प्रतिशत देने के अर्थों में सोचने का अधिकार नहीं है। हजारों संख्या मंे जो वीर सैनिक भारत को स्वतंत्र करने के लिए सेना में भर्ती हुए हैं, वे इस बात का भाव-ताव नहीं करते कि हम रणभूमि में केवत पांच प्रतिशत ही अपना खून बहायेंगे। सच्चे देशभक्त सैनिक का अमूल्य जीवन एक करोड़ रुपये से भी अधिक कीमती है। तब आप लोग जो धनवान हैं, उन्हें क्या अधिकार है कि वे मोल-भाव करें और कहंे कि हम अपनी सम्पत्ति का केवल अमुक प्रतिशत ही देंगे। ’करो सब निछार-बनो सब फकीर।’ मैं आप सभी लोगों से यही चाहता हूं। भारत की स्वतंत्रता के लिए सर्वस्व दे डालो और फकीर बन जाओ। वह बहुत त्याग नहीं है। मुझे अपना खून दो और मैं तुम्हें स्वतंत्रता देने का वचन देता हूँ।“
 सुभाषचन्द्र जयंती पर सादर श्रद्धा सुमन अर्पण सहित..



हम भाँति-भाँति के पंछी हैं

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हम भाँति-भाँति के पंछी हैं पर बाग़ तो एक हमारा है
वो बाग़ है हिन्दोस्तान हमें जो प्राणों से भी प्यारा है
हम  हम भाँति-भाँति के पंछी ………………………

बाग़ वही है बाग़ जिसमें तरह-तरह की कलियाँ हों
कहीं पे रस्ते चंपा के हों कहीं गुलाबी गलियाँ हों
कोई पहेली कहीं नहीं है, सीधा साफ़ इशारा है
हम  हम भाँति-भाँति के पंछी ………………………

बड़ी ख़ुशी से ऐसे-वैसे इकड़े तिकड़े बोलो जी
लेकिन दिल में गिरह जो बाँधी  है वो पहले खोलो जी
सुर में चाहे फर्क हो फिर भी इक  तारा इक तारा
पंजाबी या बंगाली मद्रासी या गुजराती हो
प्रीत की इक बारात है यह हम सबके साथी हो
भेद या बोली कुछ भी हो हम एक शमां  के परवाने
आपस में तकरार करें हम ऐसे तो नहीं दीवाने
मंदिर मस्जिद गिरजा अपना, अपना ही गुरुद्वारा है
हम  हम भाँति-भाँति के पंछी ……………………… 
                                                      …राजेन्द्र कृष्ण

सभी ब्लोग्गर्स एवं पाठकों को गणत्रंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!

प्रकृति के आनन्द का अतिरेक है वसंत

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व्रत ग्रंथों और पुराणों में असंख्य उत्सवों का उल्लेख मिलता है। ‘उत्सव’ का अभिप्राय है आनन्द का अतिरेक। ’उत्सव’ शब्द का प्रयोग साधारणतः त्यौहार के लिए किया जाता है। उत्सव में आनन्द का सामूहिक रूप समाहित है। इसलिए उत्सव के दिन साज-श्रृंगार, श्रेष्ठ व्यंजन, आपसी मिलन के साथ ही उदारता से दान-पुण्य किये जाने का प्रचलन भी है। वसंत इसी श्रेणी में आता है।
        ’वसन्त्यस्मिन् सुखानि।’ अर्थात् जिस ऋतु में प्राणियों को ही नहीं, अपितु वृक्ष, लता आदि का भी आह्लादित करने वाला मधुरस प्रकृति से प्राप्त होता है, उसको वसन्त कहते हैं। वसंत प्रकृति का उत्सव है, अलंकरण है। इसीलिए इसे कालिदास ने इसका अभिनंदन ’सर्वप्रिये चारुतरं वसन्ते’ कहकर किया है।
          माघ शुक्ल पंचमी को मनाये जाने वाले इस त्यौहार को ‘श्री’ पंचमी भी कहते हैं, क्योंकि मान्यता है कि इसी दिन समुद्र मंथन के समय श्री (लक्ष्मी) का अवतरण हुआ। यह दिन श्रावणी से आरम्भ होने वाले वैदिक शिक्षा के सत्र का समापन तथा नए शिक्षा का प्रारम्भ दिन माना गया है। एक कथानुसार यह सरस्वती का प्रकट होने का दिन भी है। इस दिन सरस्वती का पूजन किया जाता है। इस प्रकार वसंत पंचमी शक्ति के दो माधुर्यपूर्ण रूपों-लक्ष्मी तथा सरस्वती की जयंती है।
वसंत न केवल भारत, अपितु समूचे विश्व को पुलकित करता है। इस समय धरती से लेकर आसमान का वातावरण उल्लासपूर्ण हो जाता है। प्रकृति की विचित्र देन है कि वसंत में बिना वर्षा के ही वृक्ष, लता आदि पुष्पित होते हैं। कचनार, चम्पा, फरथई, कांकर, कवड़, महुआ आम और अत्रे के फूल धरा के आंचल को ढ़क लेते हैं। पलाश तो ऐसा फूलता है मानों धरती माता के चरणों में कोटि-कोटि सुमनांजलि अर्पित करने को आतुर हो। सरसों वासन्ती रंग के फूलों से लदकर मानों वासन्ती परिधान धारण कर लेती है। घने रूप में उगने वाले कमल के फूल जब वसंत ऋतु में अपने पूर्ण यौवन के साथ खिलते है, तब जलाशय के जल को छिपाकर वसन्त के ’कुसुमाकार’ नाम को सार्थक करते हैं। आमों पर बौर आने लगते हैं। गुलाब, हारसिंगार, गंधराज, कनेर, कुन्द, नेवारी, मालती, कामिनी, कर्माफूल के गुल्म महकते हैं तो रंजनीगंधा, रातरानी, अनार, नीबू, करौंदों के खेत ऐसे लहरा उठते हैं, मानों किसी ने हरी और पीली मखमल बिछा दी हो। ’मादक महकती वासंती बयार’ में मोहक रस पगे फूलों की बहार में, भौरों का गंुजन और कोयल की कूक मानव हृदय को उल्लास से भर देती है।         
वसंत में नृत्य-संगीत, खेलकूद प्रतियोगिताएं तथा पतंगबाजी का विशेष आकर्षण होता है। ‘हुचका, ठुमका, खैंच और ढ़ील के चतुर्नियमों में जब पेंच बढ़ाये जाते हैं तो देखने वाले रोमांचित हो उठते हैं। ऐसे में अकबर इलाहाबादी की उक्ति “करता है याद दिल को उड़ाना पंतग का।“ सार्थक हो उठती है। वसंत पंचमी के दिन जब आम जनमानस पीले वस्त्र धारण कर, वसन्ती हलुआ, पीले चावल और केसरिया खीर का आनंद लेकर उल्लास से भरी होती है, तब सुभद्राकुमारी चैहान देशभक्तों से पूछती है- 
वीरों का कैसा हो वसन्त?
फूली सरसों ने दिया रंग
मधु लेकर आ पहुंचा अनंग
वधु-वसुधा पुलकित अंग-अंग
है वीर देश में किन्तु कंत
वीरों का कैसा हो वसन्त?

परीक्षा का भूत

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           इन दिनों बच्चों की परीक्षा हो  रही है, जिसके कारण घर में एक अधोषित कर्फ्यू लगा हुआ है। बच्चे खेल-खिलौने, टी.वी., कम्प्यूटर, मोबाईल और संगी-साथियों से दूर संभावित प्रश्नों को कंठस्थ करने में लगे हुए हैं। ये दिन उनके लिए परीक्षा-देवी को मनाने के लिए अनुष्ठान करने के दिन हैं। परीक्षा रूपी भूत ने उनके साथ ही पूरे घर भर की रातों की नींद और दिन का चैन हर लिया है। बच्चों को रट्टा लगाते देख अपने बचपन के दिन याद आने लगे हैं, जब हम भी खूब रट्टा मारते तो, हमारे गुरूजी कहने लगते- “रटंती विद्या घटंती पानी, रट्टी विद्या कभी न आनी।“लेकिन तब इतनी समझ कहाँ? दिमाग में तो बस एक ही बात घुसी रहती कि कैसे भी करके जो भी गलत-सलत मिले, उसे देवता समझकर पूज लो, विष को भी अमृत समझकर पी लो और पवनसुत हनुमान की भाँति एक ही उड़ान में परीक्षा रूपी समुद्र लांघ लो। परीक्षा करीब हों तो न चाहते हुए भी तनाव शुरू हो जाता है। जब हम कॉलेज में पढ़ते तो  मेरी एक सहेली अक्सर कहती- यार आम के पेड़ों पर बौर देखकर मुझे बड़ा टेंशन  होने लगता है क्योंकि इससे पता चलता है परीक्षा आने वाली है।
             घर में परीक्षा का भूत सबको डरा रहा है। बच्चे परीक्षा के भूत को भगाने के लिए दिन-रात घोटे लगाने में लगे हुए हैं, लेकिन परीक्षा का भूत है कि जाता ही नहीं! उनके मन-मस्तिष्क में कई सवाल आकर उन्हें जब-तब आशंकित किए जा रहे हैं। यदि कंठस्थ किए प्रश्न नहीं आए तो? प्रश्न पत्र की शैली में परिवर्तन कर दिया तो? यदि प्रश्न पाठ्यक्रम से बाहर से पूछ लिए तो? यदि कठिन और लम्बे-लम्बे प्रश्न पूछ लिए तो?
           जानती हूँ बच्चों को समझाना दुनिया का सबसे कठिन काम है, फिर भी समझा-बुझा रही हूँ कि आत्मविश्वास बनाए रखना। जो कुछ पढ़ा है, समझा है, कंठस्थ किया है, उस पर भरोसा करना।  परीक्षा देने से पहले मन को शांत रखना। परीक्षा देने से पहले पढ़ने के लिए न कोई किताब-कापी साथ नहीं ले जाना और नहीं कहीं से पढ़ने-देखने की कोशिश करना। उन प्रश्नों पर चिन्ह लगाना जिन्हें कर सकते हो और जो प्रश्न सबसे अच्छा लिख सकते हो, उन्हें सबसे पहले करना। जो प्रश्न बहुत कठिन लगे उसे सबसे बाद में सोच-विचार कर जो समझ में आता हो, उसे लिखना। हर तरह से प्रत्येक परीक्षा के दिन समझाने की माथा-पच्ची करती हूँ, लेकिन बच्चे यह कहते हवा निकाल देते हैं कि प्रश्न पत्र देखते ही उन्हें यह सब भाषणबाजी याद नहीं रहती? अब उन्हें कैसे समझायें कि यह सब भाषणबाजी नहीं है! 
         बच्चों की परीक्षा जल्दी से खत्म हो, इसका मुझे ही नहीं बल्कि बच्चों के प्यारे राॅकी को भी बेसब्री से इंतजार है। जब से परीक्षा के दिन आये हैं, बच्चों के साथ उसका खेलना-कूदना क्या छूटा कि वह बेचारा उछलना-कूदना भूलकर मायूस नजरों से टुकुर-टुकुर माजरे को समझने की कोशिश में लगा रहता है। 
           बच्चों को पढ़ाने का काम बोझिल जरूर लगता है, लेकिन यदि उनके रंग में  रम जाओ तो कभी-कभी रोचक प्रसंग देखकर मन गुदगुदा उठता है। ऐसा ही एक प्रसंग मुझे मेरे बेटे जो कि चौथी कक्षा की परीक्षा दे रहा है, देखने को मिला।  मैं जब उसकी हिन्दी विषय की कॉपी देख रही थी तो मुझे उसमें उसके द्वारा लिखे मुहावरों का वाक्यों में प्रयोग देखकर बहुत हँसी आई, जिसे देखकर वह नाराज होकर रोने लगा कि शायद उसने गलत लिखा है। बहुत समझाने के बाद कि उसने बहुत अच्छा लिखा है, चुप हुआ। आप भी पढ़िए आपको भी मेरी तरह जरूर हँसी आएगी।   

...कविता रावत 

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