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मैं आऊँगा कल

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यही तो रास्ता है मेरे रोज गुजरने का
एक बार, दो बार, रोज ......
एक दिन अचानक नजरे मिली थी तुमसे वहाँ
तुम वहीं कहीं खड़ी थी
सूरत तुम्हारी आज भी याद है
सूरज की रौशनी में ओंस की बूंदों की चमक लिए
रोज यूँ ही देखा करता था तुम्हें गुजरते हुए
उस घनी हरियाली के बीच,
पत्थर पहाड़ों के पीछे तुम खड़ी मुस्कुराती थी
दूर से ही बातें किया करते थे
या फिर यूँ कहँ कि-
सिर्फ पूछा करते थे और खुद ही उसके जवाब बनाते थे
कभी हिम्मत ही नहीं हुई कि तुम्हारे पास आऊँ
मिलूँ तुमसे, बताऊँ तुम्हें अपने बारे में
बस यूँ ही दूर से ही देखा करता था तुम्हें
सोचता था हिम्मत जुटा लूँगा मैं कल,
हिम्मत जुटा लूँगा मैं कल
कल-कल-कल .........
वह कल आज आ गया है
पर तुम कहीं दिखाई ही नहीं देती
न वह हरियाली, न वह पत्थर-पहाड़
पेड़ों की जड़ें मरी पड़ी है जमीन पर
और पत्थर बिखरे, मिट्टी धूल में मिली है
तुम्हें क्या इन दरवाजों के भीतर किसी ने छुपाया है
या कहीं दीवारों में चुनवा तो नहीं दिया!
एक भीनीं-भीनीं खूशबू तो आती है यहाँ,
जो तुम्हारे होने का एहसास कराती है
कहीं चौकीदार से खड़े उस बड़े से पत्थर के पीछे तो नहीं हो तुम!
नहीं-नहीं, तुम वहीं रहना यहाँ न आना
इन सब इमारतों ने पीठ की हुई है तुम्हारी तरफ
यह जानती हैं यह कितनी गुनहगार हैं
तुमसे नजरें मिलाने को इन्होंने झरोखे रख छोड़े हैं
हमारी लाचारी का मजाक उड़ाते झरोखे
इनसे कैसे ढूंढ़ूंगा तुम्हें
यह नन्हीं बेले दीवारों पर चढ़ती हुई तुमने छोड़ी है
या सन्देश है तुम्हारे वापस आने का
न, ना तुम यहाँ न आना
मैं आऊँगा फिर हिम्मत जुटा के कल
मैं आऊँगा कल!
......मिलन सिंह


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