Quantcast
Channel: Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
Viewing all articles
Browse latest Browse all 602

राजनेता के दुराचार से टूटे-बिखरे घर की व्यथा-कथा है 'पुरुष'नाटक

$
0
0


          फिल्म हो या टीवी सीरियल उन्हें देख मुझे कभी भी वह आत्मतृप्ति नहीं मिलती, जितनी किसी थिएटर में मंचित नाटक को देखकर मिलती है।  कारण स्पष्ट है नाटक जैसा जीवंत मंचीय संवाद किसी अन्य मंच में कहाँ देखने को मिलता है?  इसमें अपनी आँखों के सामने मंच पर आकर जब नाटक के पात्र अपने प्रभावशाली अभिनय कला का प्रयत्क्ष प्रदर्शन कर किरदारों को जीवंत करते हैं तो ऐसा अनुभव होता है जैसे सब कुछ हमारी आँखों के सामने एक के बाद एक घटित हो रहा हो। ऐसा ही एक अवसर मुझे सोमवार शाम को मिला, जब हम शहीद भवन, भोपाल में आदर्श शर्मा द्वारा निर्देशित नाटक 'पुरुष 'का मंचन देखने गए। यह नाटक मूल रूप से जयवंत दलवी द्वारा लिखित मराठी नाटक था, जिसे  ज्योति सवारीकर ने रूपांतरित किया था।  इस नाटक को देखने का एक विशेष कारण यह भी था कि इसमें सिद्धार्थ नाम का किरदार मेरे भतीजे मिलन रावत ने बखूबी निभाया।  शहीद भवन में मंचित इस नाटक में कई नवीन प्रयोग देखने को मिले। जहाँ नाटक के अनुरूप फोम से ऐसा दोहरा सेट बनाया गया था, जिसमें एक तरफ साधारण घर तो दूसरी तरफ आलिशान डाक बंगला दिखाया गया था।  नाटक में हमें पहली बार फिल्मों की तरह लाइट से बने मास्क और टूटती हुई बोतल और खून के टपकती बूँदें देखने को मिली।    

         शहीद भवन में मंचित इस नाटक में दिखाया गया कि भले ही सत्ता और पैसे के बल पर अन्यायपूर्ण कृत्य करने वाले राजनेताओं के विरुद्ध आवाज़ उठाना एक आम परिवार और विशेषकर एक नारी के लिए हमेशा से ही जोखिम भरा रहा है, फिर भी वह हार नहीं मानती।  नाटक का आरम्भ अन्ना आप्टे के घर से होता है, जहाँ वे एक आदर्श शिक्षक के रूप में हमारे सामने आते हैं। जिनका अपनी पत्नी तारा के साथ कुछ वैचारिक मतभेद हैं, बावजूद वह हर हाल में उनका साथ देती है। अन्ना की बेटी अंबिका एक स्कूल में अध्यापिका है, जो अन्याय के विरुद्ध हमेशा आवाज उठाती है। उसका एक मित्र सिद्धार्थ रहता है, जो दलितों के हक की आंदोलन करता है, जिसके साथ वह घर बसाना चाहती है। लेकिन अम्बिका का एक बाहुबली नेता गुलाबराव के काले कारनामों को उजागर करने का एक कदम उस पर तब भारी पड़ जाता है जब वह एक दिन उनके घर में आ धमकता है और उसके परिवार और उसे अपनी बातों से भरमाकर उससे बदला लेने के लिए उसे अपने  डाक बंगले में बुलाता है और उसका बलात्कार कर देता है। मामला अदालत तक पहुँचता है तो नेता अपने घर के नौकर को अदालत में प्रस्तुत कर देता है और इसे विपक्ष की साजिश बताकर स्वयं बरी हो जाता है।  यह देखकर पैसों की तंगहाली और समाज में बदनामी होने से दुःखी उसकी माँ कीटनाशक दवा पीकर अपनी इहलीला समाप्त कर देती हैं।  जब बिगड़ते हालातों में अंबिका का मित्र सिद्धार्थ भी उसका साथ छोड़ देता है, तब वह अपने संघर्ष की लड़ाई अकेले ही लड़ने की ठानकर गुलाबराव के बंगले में उसे सबक सिखाने जाती है। यह नाटक का अंतिम दृश्य होता है, जहाँ वह नशे में धुत गुलाबराव के सिर पर कांच की बोतल से तीव्र प्रहार कर पहले उसे घायल और फिर बधिया कर देती है और फिर पुलिस को फ़ोन कर रोते-बिलखते अपना आक्रोश व्यक्त कर बताती है कि उसने गुलाब राव का पुरुषत्व हमेशा-हमेशा के लिए खत्‍म कर दिया है ...... अब तो आओगे ही न..... ...  काश कि उस दिन भी आ जाते!!!! यहाँ नाटक का अंत होता है जो कई अनुत्तरित प्रश्न छोड़ती है।  ....कविता रावत 

नाटक : पुरुष लेखक : जयवंत दलवी हिंदी रूपांतरण : ज्योति सावरीकर निर्देशक : आदर्श शर्मा मार्गदर्शन : के जी त्रिवेदी स्थान : शहीद भवन, भोपाल







Viewing all articles
Browse latest Browse all 602