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असह्य वेदना | भोपाल गैस त्रासदी की दर्दभरी दास्‍तां | Bhopal disaster |

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जैसे ही प्रतिवर्ष दिसंबर माह शुरू होता है तो भोपाल गैस त्रासदी का वह भयावह मंजर आँखों में कौंधने लगता है। अपनी आँखों के सामने घटी इस त्रासदी के भयावह दृश्य कई वर्ष बाद भी आँखों में उमड़ते-घुमड़ते हुए मन को बेचैन कर देती है। उस समय की यादें अक्सर उन सभी पीड़ित घर-परिवारों की दशा देख-सुनकर मन बार-बार उन्हीं के इर्द-गिर्द घूम-घूम कर मन को व्यथित कर देता है। जब-जब कोई भी पीड़ित व्यक्ति अपनी व्यथा सुनाता था तो मन गहरी संवेदना से भर उठता और क्या करें, क्या नहीं की उधेड़बुन में खोकर बेचैन होने लगता।  आज ब्लॉग पर तत्समय की हालातों में उन दिनों की लिखी एक आँखों देखी त्रासद भरी जीवंत घटना का काव्य रूप प्रस्तुत कर रही हूँ।   

वो पास खड़ी थी मेरे
        दूर कहीं की रहने वाली,
दिखती थी वो मुझको ऐसी
        ज्यों मूक खड़ी हो डाली।
पलभर उसके ऊपर उठे नयन
       पलभर नीचे थे झपके,
पसीज गया यह मन मेरा
      जब आँसू उसके थे टपके।
वीरान दिखती वो इस कदर
      ज्यों पतझड़ में रहती डाली,
वो मूक खड़ी थी पास मेरे
      दूर कहीं की रहने वाली।।
समझ न पाया मैं दु:ख उसका
     जाने वो क्या चाहती थी,
सूनापन दिखता नयनों में
     वो पल-पल आँसू बहाती थी।
निरख रही थी सूनी गोद वह
    और पसार रही थी निज झोली
जब दु:ख का कारण पूछा मैंने
      तब वह तनिक सहमकर बोली-
'छिन चुका था सुहाग मेरा
     किन्तु अब पुत्र-वियोग है भारी,
न सुहाग न पुत्र रहा अब
     खुशियाँ मिट चुकी है मेरी सारी।'
'असहाय वेदना'थी यह उसकी
     गोद हुई थी उसकी खाली,
वो दुखियारी पास खड़ी थी 
      दूर कहीं की रहने वाली।।

...कविता रावत 

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