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त्रासदी के कड़ियां | भोपाल गैस कांड |

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देखते-देखते भोपाल गैस त्रासदी के 39 बरस बीत गए।हर वर्ष तीन दिसंबर गुजर जाता है और उस दिन मन में कई सवाल उठते हैं, जो अनुत्तरित रह जाते हैं। हमारे देश में मानव जीवन कितना सस्ता और मृत्यु कितनी सहज है, इसका अनुमान उस विभीषिका से लगाया जा सकता है, जिसमें हजारोें लोग अकाल मौत के मुँह में चले गए और लाखों लोग प्रभावित हुए। वह त्रासदी जहाँ हजारों पीडि़तों का शेष जीवन घातक बीमारियों, अंधेपन एवं अपंगता का अभिशाप बना गई तो दूसरी ओर अनेक घरों के दीपक बुझ गए। न जाने कितने परिवार निराश्रित और बेघर हो गये, जिन्हें तत्काल जैसी सहायता व सहानुभूति मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिली।       
            विकासशील देशों को विकसित देश तकनीकी प्रगति एवं औद्योगिक विकास और सहायता के नाम पर वहाँ त्याज्य एवं निरूपयोगी सौगात देते हैं।  इसका सबसे बड़ा उदाहरण यूनियन कार्बाइड काॅरपोरेशन था, जिसके कारण हजारों लोग मारे गए, कई हजार कष्ट और पीड़ा से संत्रस्त हो गए लेकिन उनकी समुचित सहायता व सार-संभाल नहीं हुई। पीडितों को आखिरकार उचित क्षतिपूर्ति के लिए कानूनी कार्यवाही और नैतिक दबाव का सहारा लेना पड़ा। अगर अमेरिका में ऐसी दुर्घटना होती तो वहाँ की समूची व्यवस्था क्षतिग्रस्तों को हर संभव सहायता मुहैया कराकर ही दम लेती और उस कंपनी के खिलाफ कड़ी कार्यवाई होती। अमेरिका में ऐसे कई उदाहरण हैं, जिसमें जनजीवन को जोखिम में डालने और अनिष्ट के लिए जिम्मेदार कम्पनियों एवं संस्थानों ने करोड़ों डालरों की क्षतिपूर्ति दी।  लेकिन गरीब देशों के नागरिकों का जीवन मोल विकसित देशों के मुकाबले अतिशय सस्ता आंका जाना इस त्रासदी के नतीजों और उसके बाद सरकारी रुख से समझ में आता है।
        इस विभाीषिका से एक साथ कई मसले सामने आए, गंभीर सवाल उठे। अव्वल तो ऐसे जोखिम पैदा करने वाले कारखाने को घनी आबादी के बीच लगाने की अनुमति क्यों दी गई, जिसमें विषाक्त गैसों का भंडारण और उत्पादों में खतरनाक रसायन प्रयोग होता है। यह देश का सबसे विशाल कारखाना था, जिसमें हुई दुर्घटना ने सुरक्षा व्यवस्था और राजनीतिक सांठ-गांठ की पोल खोल दी। यह हादसा विश्व में अपने ढंग का पहला वाकया था। हालांकि तीन दिसंबर की  विभीषिका से पहले भी संयंत्र में कई बार गैस रिसाव की घटनायें घट चुकी थी, जिसमें कम से कम दस श्रमिक मारे गए थे। दो-तीन दिसम्बर 1984 की दुर्घटना मिथाइल आइसोसाइनेट नामक जहरीली गैस से हुई। कहते हैं कि इस गैस को बनाने के लिए फोस जेन नामक गैस का प्रयोग होता है। फोसजेन गैस भयावह रूप से विषाक्त और खतरनाक है। कहा जाता है कि हिटलर ने यहूदियों के सामूहिक संहार के लिए गैस चेम्बर बनाये थे,  उनमें वही गैस भरी हुई थी। ऐसे खतरनाक एवं प्राणघातक उत्पादनों के साथ संभावित खतरों का पूर्व आकलन और समुचित उपाय किए जाते हैं। मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अगर सुरक्षा उपाय के लिए ठोस कदम उठाए होते तो उस विभीषिका से बचा जा सकता था। पूर्व की दुर्घटनाओं के बाद कारखाने के प्रबंधन ने  उचित कदम नहीं उठाए और शासन प्रशासन भी कर्त्तव्यपालन से विमुख व उदासीन बना रहा।  39 बरस बीत जाने पर भी दुर्घटना स्थल पर पड़े रासायनिक कचरे को अब तक ठिकाने न लगा पाना और गैस पीडि़तों को समुचित न्याय न मिल पाना शासन प्रशासन की कई कमजोरियों को उजागर करता  है।
          ....कविता रावत


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